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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चदशमध्ययने गाथा ३
पञ्चदशमादानीयाध्ययनम् “ वीतरागा हि सर्वज्ञा, मिथ्या न ब्रुवते वचः । यस्मात्तस्माद्वचस्तेषां, 'तथ्यं भूतार्थदर्शनम् ||१||” ननु च सर्वज्ञत्वमन्तरेणापि हेयोपादेयमात्रपरिज्ञानादपि सत्यता भवत्येव, तथा चोक्तम् -
" सर्व पश्यतु वा मा वा, तच्चमिष्टं तु पश्यतु । कीटसंख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ?||9||” इत्याशङ्कयाह- 'सदा' सर्वकालं 'सत्येन' अवितथभाषणत्वेन संपन्नोऽसौ अवितथभाषणत्वं च सर्वज्ञत्वे सति भवति, नान्यथा, तथाहि - कीटसंख्यापरिज्ञानासंभवे सर्वत्रापरिज्ञानमाशङ्कयेत, तथा चोक्तम्- "सदृशे बाधासंभवे तल्लक्षणमेव दूषितं स्याद्" इति सर्वत्रानाश्वासः, तस्मात्सर्वज्ञत्वं तस्य भगवत एष्टव्यम्, अन्यथा तद्वचसः सदा सत्यता न स्यात्, सत्यो वा संयमः सन्तः प्राणिनस्तेभ्यो हितत्वाद् अतस्तेन तपः प्रधानेन संयमेन भूतार्थहितकारिणा 'सदा' सर्वकालं 'संपन्नो' युक्तः, एतद्गुणसंपन्नश्चासौ 'भूतेषु' जन्तुषु 'मैत्री' तद्रक्षणपरतया भूतदयां 'कल्पयेत्' कुर्यात्, इदमुक्तं भवति - परमार्थतः स सर्वज्ञस्तत्त्वदर्शितया यो भूतेषु मैत्रीं कल्पयेत्, तथा चोक्तम्[मातृवत्परदाराणि, परद्रव्याणि लोष्टवत् ।] आत्मवत्सर्वभूतानि यः पश्यति स पश्यति ||१|| ||३||
टीकार्थ इस गाथा में "तत्र तत्र" पद वीप्सा अर्थ में आया है, इसलिए श्री तीर्थङ्कर देव ने जीव और अजीव आदि जो-जो पदार्थ बताये हैं तथा उन्होंने मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को बन्ध का कारण कहकर जो इन्हें संसार का कारण कहा है, एवं सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र को जो मोक्ष का मार्ग बताया है सो सब मोक्ष के कारण और पूर्वापर से अविरुद्ध एवं युक्ति से युक्त होने के कारण स्वाख्यात यानी सम्यक्कथन
परन्तु अन्य तीर्थियों का कथन स्वाख्यात नहीं है क्योंकि पहले तो अन्यतीर्थियों ने "किसी भी जीव की हिंसा नहीं करनी चाहिए" ऐसी आज्ञा देकर फिर स्थल स्थल में जीवों के विनाशक आरम्भ की आज्ञा दी है, इसलिए उनके ग्रन्थ पूर्वापर विरुद्ध हैं, अतः विचार करने पर युक्ति रहित होने के कारण अन्य तीर्थिकों का कथन स्वाख्यात नहीं है । श्री तीर्थङ्कर देव, अविरुद्ध अर्थ को बतानेवाले हैं क्योंकि मिथ्या भाषण के कारण रागद्वेष और मोह उनमें नहीं अत एव उनका स्वरूप जाननेवाले पुरुष कहते हैं कि- सत्पुरुषों के हितकारी होने के कारण श्री तीर्थङ्कर देव सत्य हैं । राग आदि, मिथ्या भाषण के कारण हैं, वे श्री तीर्थङ्कर देव में नहीं हैं इसलिए कारण के अभाव से कार्य का अभाव होना स्वाभाविक ही है, अतः तीर्थङ्कर देव का वचन सत्य अर्थ का प्रतिपादक है । अत एव कहा है कि
सर्वज्ञ पुरुष वीतराग होते हैं, वे मिथ्यावचन नहीं बोलते, इसलिए सर्वज्ञ पुरुषों का वचन सत्य अर्थ का प्रतिपादक है ।
यहाँ शङ्का होती है कि- सर्वज्ञता न होने पर भी त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य वस्तु के ज्ञानमात्र से सत्यवादिता हो सकती है, अत एव कहा है कि- (सर्वम् )
अर्थात् मार्गदर्शक पुरुष सर्वज्ञ हो या न हो परन्तु इष्ट अर्थ का दर्शक होना चाहिए, क्योंकि कीड़ों की संख्या का ज्ञान हमारे किस प्रयोजन को सिद्ध कर सकता है ।
इस शङ्का का समाधान करने के लिए शास्त्रकार कहते हैं कि- वह तीर्थङ्कर सदा सत्य भाषण से युक्त हैं परन्तु सर्वज्ञता होने पर ही सदा सत्य भाषण किया जा सकता है अन्यथा नहीं क्योंकि उनको जैसे कीड़ों की संख्या का ज्ञान नहीं है, इसी तरह दूसरे पदार्थों का ज्ञान न होना भी सम्भव है, अत एव कहा है कि जैसे एक स्थल में उस पुरुष का ज्ञान बाधित और असम्भव है, इसी तरह दूसरी जगह भी हो सकता है, इस प्रकार उसकी सत्यवादिता दूषित हो जाती है, अतः उसके किसी भी वाक्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता, अतः श्री तीर्थङ्कर भगवान् को अवश्य सर्वज्ञ मानना चाहिए । अन्यथा उनका वचन सदा सत्य नहीं हो सकता है । अथवा प्राणियों को सत् कहते हैं और उनका जो हितकर है, उसे सत्य कहते है, वह संयम है क्योंकि वह प्राणियों का हितकर है, उस भूतहितकारी तपः प्रधान संयम से सदा युक्त होकर वह तीर्थङ्कर देव प्राणियों में मैत्री की स्थापना करते हैं, अर्थात् वे जीवों की रक्षा का उपदेश देकर भूतदया की स्थापना करते हैं। आशय यह है कि- वस्तुतः वही
1. तथा भूतार्थ० प्रस । 2. नास्ति क्वचिदपि आदर्शे ।
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