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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा २७
ग्रन्थाध्ययनम्
आज्ञाग्राह्योऽर्थः स आज्ञयैव प्रतिपत्तव्यो हेतुकस्तु सम्यग्धेतुना यदिवा स्वसमयसिद्धोऽर्थः स्वसमये व्यवस्थापनीयः पर (समय) सिद्धश्च परस्मिन् अथवोत्सर्गापवादयोर्व्यवस्थितोऽर्थस्ताभ्यामेव यथास्वं प्रतिपादयितव्यः, एतद्गुणसंपन्नश्च 'आदेयवाक्यो' ग्राह्यवाक्यो भवति, तथा 'कुशलो' निपुणः आगमप्रतिपादने सदनुष्ठाने च 'व्यक्तः' परिस्फुटो नासमीक्ष्यकारी, यश्चैतद्गुणसमन्वितः सोऽर्हति - योग्यो भवति 'तं' सर्वज्ञोक्तं ज्ञानादिकं वा भावसमाधिं 'भाषितुं' प्रतिपादयितुं, नापर: कश्चिदिति । इतिः परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमीति पूर्ववत्, गतोऽनुगमा, नयाः प्राग्वद्व्याख्येयाः || २७॥ ॥ समाप्तं चतुर्दशं ग्रन्थाख्यमध्ययनमिति ||
टीकार्थ जो साधु सम्यग्दर्शन को दूषित नहीं करता है किन्तु आगम के यथार्थस्वरूप को प्रकट करता है एवं विचारकर वाक्य बोलता है तथा वस्तु के यथार्थ स्वरूप को कहकर और यथार्थ उच्चारण करके जो शुद्ध सूत्रवाला है एवं जो आगमोक्त तप का अनुष्ठान करता है तथा जो श्रुत और चारित्ररूप धर्म को अच्छी तरह से प्राप्त करता है, आशय यह है कि जो अर्थ शास्त्र की आज्ञामात्र से ग्रहण करने योग्य है, उसे आज्ञामात्र से ग्रहण करना चाहिए और जो अर्थ हेतु से ग्रहण करने योग्य है, उसे हेतु के द्वारा ही ग्रहण करना चाहिए । अतः जो ऐसा करता है अथवा स्वसिद्धान्त में सिद्ध जो अर्थ है, उसे स्वसिद्धान्त में ही स्थापन करना चाहिए और परसिद्धान्त में सिद्ध अर्थ को परसिद्धान्त में ही स्थापन करना चाहिए अथवा उत्सर्गरूप अर्थ को उत्सर्गरूप में और अपवादरूप अर्थ को अपवादरूप में स्थापन करना चाहिए, जो पुरुष ऐसे गुणों से युक्त है उसी की बात माननी चाहिए अतः जो पुरुष उत्तमगुणों से सम्पन्न है तथा आगम के प्रतिपादन और उत्तम अनुष्ठान करने में कुशल है एवं जो बिना विचारे कार्य्य नहीं करता है, वही पुरुष सर्वज्ञोक्त भावसमाधि अथवा ज्ञान आदि का भाषण कर सकता है दूसरा नहीं । इति शब्द समाप्ति अर्थ का बोधक है। ब्रवीमि पूर्ववत् है, अनुगम समाप्त हुआ । नयों की व्याख्या पूर्ववत् करनी चाहिए ।
यह चौदहवाँ ग्रन्थाध्ययन समाप्त हुआ ।
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