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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा २६
ग्रन्थाध्ययनम् भवति-पुरुषविशेषं ज्ञात्वा तथा तथा कथनीयमपसिद्धान्तदेशनापरिहारेण यथा यथा श्रोतुः सम्यक्त्वं स्थिरीभवति, न पुनः शङ्कोत्पादनतो दूष्यते, यश्चैवंविधः स 'जानाति' अवबुध्यते 'भाषितुं' प्ररूपयितुं 'समाधि' सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राख्यं सम्यक्चित्तव्यवस्थानाख्यं वा तं सर्वज्ञोक्तं समाधिं सम्यगवगच्छतीति ॥२५॥
टीकार्थ - श्री तीर्थङ्कर और गणधर आदि ने जो वचन कहे हैं, उन्हें साधु रात दिन सीखे । अर्थात् साधु सर्वज्ञोक्त आगम को ग्रहण शिक्षा के द्वारा अच्छी तरह ग्रहण कर और आसेवना शिक्षा के द्वारा उद्युक्त विहारी होकर सेवन करे । साधु दूसरे लोगों को भी सर्वज्ञ के आगम को उसी तरह प्रतिपादन करे । जिस कार्य का जो काल नहीं है उसमें भी साधु वह कार्य न कर बैठे इस लिए शास्त्रकार कहते हैं कि- साधु सदा ग्रहण शि आसेवना शिक्षा तथा देशना में प्रयत्न करे परन्तु जो जिस कर्तव्य का काल है अथवा जो अध्ययन का काल है उसे उल्लङ्घन करके न बोले अर्थात् साधु अध्ययन तथा दूसरे कर्त्तव्य की मर्यादा को उल्लङ्घन न करे किन्तु उत्तम अनुष्ठान में प्रवृत्त रहे । साधु अवसर के अनुसार एक क्रिया से दूसरी क्रिया को बाधा न देता हुआ सभी क्रियायें करे । जो साधु इस प्रकार का है अर्थात् जो काल के अनुसार आचरण करता है वह सम्यग्दृष्टिमान् है अर्थात् वह पदार्थ के यथार्थ स्वरूप में श्रद्धा रखनेवाला है । वह साधु धर्मोपदेश देता हुआ सम्यग्दर्शन को दूषित न करे, आशय यह है कि- सुननेवाले पुरुष की योग्यता देखकर इस प्रकार धर्म का उपदेश देना चाहिए जिससे वह पुरुष अपसिद्धान्त को त्यागकर सम्यग्धर्म में दृढ़ हो जाय परन्तु इस प्रकार उपदेश न करे जिससे श्रोता के मन में शङ्का उत्पन्न होकर सम्यक्त्व में दोष आये । जो पुरुष इस प्रकार उपदेश करना जानता है वह सम्यग, ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप सर्वज्ञोक्त भाव समाधि को अथवा श्रोता के चित्त को स्थिर करने रूप समाधि को प्रतिपादन करना अच्छी तरह जानता है ॥२५॥
- किञ्चान्यत् -
- और दूसरा भी अलूसए णो पच्छन्नभासी, णो सुत्तमत्थं च करेज्ज ताई । सत्थारभत्ती अणुवीइ वायं, सुयं च सम्म पडिवाययंति
॥२६॥ छाया- अलूषको नो प्रच्छाभाषी, न सूत्रमर्थच कुर्य्यात् त्रायी।
__शास्तृभक्त्याउनुविचिन्त्यवादं, श्रुतच सम्यक् प्रतिपादयेत् ॥
अन्वयार्थ - (अलूसए) साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे (णो पच्छन्नभासी) सिद्धान्त को न छिपावे (ताई सुत्तमत्थं च णो करेज्ज) प्राणियों की रक्षा करनेवाला पुरुष सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे । (सत्थारभत्ती अणुवीइ वायं) शिक्षा देनेवाले गुरु की भक्ति का ध्यान रखता हुआ साधु सोच विचारकर कोई बात कहे । (सुयं च सम्म पडिवाययंति) एवं साधु जिस प्रकार गुरु से सुना है, वैसा ही दूसरे से सूत्र की व्याख्या करे ।
भावार्थ - साधु आगम के अर्थ को दूषित न करे तथा शास्त्र के सिद्धान्त को न छिपावे । प्राणियों की रक्षा करनेवाला साधु सूत्र और अर्थ को अन्यथा न करे तथा शिक्षा देनेवाले गुरु की भक्ति का ध्यान रखते हुए सोच विचार कर कोई बात कहे । एवं गुरु से जैसा सुना है, वैसा ही दूसरे के प्रति सूत्र की व्याख्या करे ।
टीका - 'अलूसए' इत्यादि, सर्वज्ञोक्तमागमं कथयन् 'नो लूषयेत्' नान्यथाऽपसिद्धान्तव्याख्यानेन दूषयेत्, तथा 'न प्रच्छन्नभाषी भवेत्' सिद्धान्तार्थमविरुद्धमवदातं सार्वजनीनं तत्प्रच्छन्नभाषणेन न गोपयेत्, यदिवा प्रच्छन्नं वाऽर्थमपरिणताय न भाषेत, तद्धि सिद्धान्तरहस्यमपरिणतशिष्यविध्वंसनेन दोषायैव संपद्यते, तथा चौक्तम्
"अप्रशान्तमती शाखासद्भावप्रतिपादनम् । दोषायाभिनवोदीर्ण, शमनीयमिव ज्वरे ||१||" इत्यादि,
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