SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा २२ ग्रन्थाध्ययनम् इत्यादि बातें जो दूसरे के दोषों को प्रकट करनेवाली हैं तथा पापबन्ध के कारण हैं, उन्हें साधु हँसी में न कहे । एवं रागद्वेष रहित अथवा बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थि को त्याग देने से निष्किञ्चन साधु जो बात वस्तुतः सत्य होने पर भी दूसरे के चित्त को दुःखित करनेवाली है, उसे ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्र करे । अथवा साधु रागद्वेष रहित होकर ओजस्वी बने और जो वस्तुतः सत्य है यानी बनावटी नहीं है तथा किसी को धोखा देनेवाली नहीं है एवं कर्म के सम्बन्ध न होने के कारण, तथा ममत्व रहित और अल्पपराक्रमी जीव से अनुष्ठान न करने योग्य होने के कारण जो कर्कश है अथवा अन्तप्रान्त आहार के उपभोग के कारण जो आचरण करने में कठिन है, ऐसे संयम को अनुष्ठान के द्वारा अच्छी तरह जाने । साधु किसी अर्थविशेष को स्वयं जानकर अथवा पूजा सत्कार आदि को पाकर उन्माद को प्राप्त न हो । तथा साधु आत्मप्रशंसा न करे अथवा अच्छी तरह जाने बिना दूसरे की अत्यन्त प्रशंसा न करे । एवं साधु धर्मकथा के समय लाभ आदि की अपेक्षा न रखे तथा सदा कषाय रहित होकर रहे ॥२१।। - साम्प्रतं व्याख्यानविधिमधिकृत्याह - - अब शास्त्रकार व्याख्यान विधि के विषय में कहते हैं - संकेज्ज याऽसंकितभाव भिक्खू, विभज्जवायं च वियागरेज्जा। भासादुयं धम्मसमुट्ठितेहिं, वियागरेज्जा समया सुपन्ने ॥२२॥ छाया - शङ्केत चाशक्षितभावो भिक्षुः, विभज्यवादश्च व्यागृणीयात् । भाषाद्वयं धर्मसमुत्थितागृणीयात्समतया सुप्रज्ञाः ॥ __ अन्वयार्थ - (असंकितभावभिक्खू) सूत्र और अर्थ के विषय में शङ्का रहित भी साधु (संकेज्ज) गर्व न करे । (विभज्जवायं च वियागरेज्जा) तथा स्याद्वादमय वचन बोले (धम्मसमुट्टितेहिं भासादुर्य) तथा धर्माचरण करने में प्रवृत रहनेवाले साधुओं के साथ विचरता हुआ साधु सत्यभाषा और जो असत्य नहीं तथा मिथ्या नहीं है, ऐसी भाषाओं को बोले (समयासुपने वियागरेज्जा) उत्तमबुद्धि सम्पन्न साधु धनवान् और दरिद्र सब को समभाव से धर्म कहे। भावार्थ - सूत्र और अर्थ के विषय में शङ्का रहित भी साधु शद्वितसा वाक्य बोले । तथा व्याख्यान आदि के समय स्याद्वादमय वचन बोले । एवं धर्माचरण करने में प्रवृत रहनेवाले साधुओं के साथ विचरता हुआ साधु सत्यभाषा और जो भाषा सत्य नहीं तथा मिथ्या भी नहीं है, इन दोनों भाषाओं को बोले । तथा धनवान् और दरिद्र दोनों को समभाव से धर्म कहे। टीका - 'भिक्षुः' साधुर्व्याख्यानं कुर्वनर्वाग्दर्शित्वादर्थनिर्णयं प्रति अशङ्कितभावोऽपि 'शङ्केत' औद्धत्यं परिहरनहमेवार्थस्य वेत्ता नापरः कश्चिदित्येवं गर्वं न कुर्वीत किन्तु विषममर्थं प्ररूपयन् साशङ्कमेव कथयेद्, यदिवा परिस्फुटमप्यशङ्कितभावमप्यर्थं न तथा कथयेत् यथा परः शङ्केत, तथा विभज्यवाद-पृथगर्थनिर्णयवादं व्यागृणीयात् यदिवा विभज्यवादःस्याद्वादस्तं सर्वत्रास्खलितं लोकव्यवहाराविसंवादितया सर्वव्यापिनं स्वानुभवसिद्धं वदेद्, अथवा सम्यगर्थान् विभज्यपृथक्कृत्वा तद्वादं वदेत्, तद्यथा-नित्यवादं द्रव्यार्थतया पर्यायार्थतया त्वनित्यवादं वदेत्, तथा स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः सर्वेऽपि पदार्थाः सन्ति, परद्रव्यादिभिस्तु न सन्ति, तथा चोक्तम्"सदेव सर्व को नेच्छेत्स्वळपादिचतुष्दयात् ? | असदेव विपर्यासाल चेल व्यवतिष्ठते ॥१॥" इत्यादिकं विभज्यवादं वदेदिति । विभज्यवादमपि भाषाद्वितयेनैव ब्रूयादित्याह-भाषयोः आद्यचरमयोः सत्यासत्यामृषयोर्द्विकं भाषाद्विकं तद्भाषाद्वयं क्वचित्पृष्टोऽपृष्टो वा धर्मकथावसरेऽन्यदा वा सदा वा 'व्यागृणीयात्' भाषेत, किंभूतः सन् ?-सम्यक्-सत्संयमानुष्ठानेनोत्थिताः समुत्थिताः-सत्साधव उद्युक्तविहारिणो न पुनरुदायिनृपमारकवत्कृत्रिमास्तैः सम्यगुत्थितैः सह विहरन् चक्रवर्तिद्रमकयोः समतया रागद्वेषरहितो वा शोभनप्रज्ञो भाषाद्वयोपेतः सम्यग्धर्म व्यागृणीयादिति ॥२२॥ ५९३
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy