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________________ सूत्रकृताने भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा २१ ग्रन्थाध्ययनम् का धर्म जो वस्तुदान तथा तर्पण आदि हैं, उनका उपदेश साधु न करे । अथवा असाधुओं के धर्म का उपदेश करनेवाले को साधु अच्छा न कहे अथवा धर्मकथा या व्याख्यान करता हुआ साधु प्रजाओं में अपनी कीर्त्ति की इच्छा न करे ॥२०॥ किञ्चान्यत् - और दूसरे रूप से शिक्षा हासं पिणो संधति पावधम्मे, ओए तहीयं फरुसं वियाणे । णो तुच्छ णो य विकंथइज्जा, अणाइले या अकसाइ भिक्खू - छाया - हासमपि न संधयेत्पापधर्मान, ओजस्तथ्यं परुषं विजानीयात् । न तुच्छो न च विकत्थयेदनाकुलोवाऽकषायी भिक्षुः ॥ अन्वयार्थ - ( हासं पिणो संधति) जिससे हैंसी उत्पन्न हो ऐसा कोई शब्द तथा शरीरादि व्यापार साधु न करे (पावधम्मे ) तथा पापमय धर्म को हास्य से भी न कहे (ओए तहीयं फरुसं वियाणे) राग द्वेष रहित साधु जो सत्य वचन दूसरे के चित्त को दुःखित करनेवाला है उसे न कहे। (णो तुच्छए णो य विकंथइज्जा) साधु पूजा सत्कार को पाकर मान न करे तथा अपनी प्रशंसा न करे (अणाइले या अकसाइ भिक्खू ) तथा साधु सदा लोभादि कषायों से रहित होकर रहे । भावार्थ - जिससे हास्य उत्पन्न होता हो ऐसा शब्द तथा शरीर आदि का व्यापार साधु न करे तथा साधु हास्य से भी पापमय धर्म को न कहे । रागद्वेष रहित साधु जो वचन दूसरे को दुःखित करता है, वह सत्य हो तो भी न कहे। एवं साधु पूजा सत्कार आदि को पाकर मान न करे और अपनी प्रशंसा न करे । तथा साधु सदा लोभ आदि और कषायों से रहित होकर रहे । टीका यथा परात्मनोर्हास्यमुत्पद्यते तथा शब्दादिकं शरीरावयवमन्यान् वा पापधर्मान् सावद्यान्मनोवाक्कायव्यापारान् 'न संघयेत्' न विदध्यात्, तद्यथा - इदं छिन्द्धि भिद्धि, तथा कुप्रावचनिकान् हास्यप्रायं नोत्प्रासयेत्, तद्यथा-शोभनं भवदीयं व्रतं, तद्यथा - ।।२१॥ "मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया, मध्ये भक्तं पानकं चापरा । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे, मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ||१|| " 1.03 इत्यादिकं परदोषोद्भावनप्रायं पापबन्धकमितिकृत्वा हास्येनापि न वक्तव्यं । तथा 'ओजो' रागद्वेषरहितः सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थत्यागाद्वा निष्किञ्चनः सन् 'तथ्य' मिति परमार्थतः सत्यमपि परुषं वचोऽपरचेतोविकारि ज्ञपरिज्ञया विजानीयात्प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परिहरेत्, यदिवा रागद्वेषविरहादोजाः 'तथ्यं' परमार्थभूतमकृत्रिममप्रतारकं 'परुषं' कर्मसंश्लेषाभावान्निर्ममत्वादल्पसत्त्वैर्दुरनुष्ठेयत्वाद्वा कर्कशमन्तप्रान्ताहारोपभोगाद्वा परुषं - संयमं 'विजानीयात् ' तदनुष्ठानतः सम्यगवगच्छेत्, तथा स्वतः कञ्चिदर्थविशेषं परिज्ञाय पूजासत्कारादिकं वाऽवाप्य 'न तुच्छो भवेत्' नोन्मादं गच्छेत्, तथा 'न विकत्थयेत्' नात्मानं श्लाघयेत् परं वा सम्यगनवबुध्यमानः 'नो विकत्थयेत्' नात्यन्त चमढयेत्, तथा 'अनाकुलो' व्याख्यानावसरे धर्मकथावसरे वाऽनाविलो लाभादिनिरपेक्षो भवेत्, तथा सर्वदा 'अकषायः' कषायरहितो भवेद् 'भिक्षुः ' साधुरिति ॥२१॥ टीकार्थ जिससे अपने को या दूसरे को हास्य उत्पन्न हो ऐसा कोई शब्द आदि तथा अपने अङ्ग या और कोई सावद्य मन, वचन और काय का व्यापार साधु न करे । जैसेकि - इसे छेदो, इसे भेदो इत्यादि वाक्य साधु न बोले । एवं साधु कुप्रावचनिकों की हँसी न करे, जैसेकि- "आपका व्रत सुन्दर है क्योंकि - मुलायम शय्या पर शयन करना और सवेरे उठकर दूध पीना एवं दोपहर के समय भात खाना तथा सायंकाल में शर्बत पीना और आधीरात में दाख खाना, इन बातों से ही शाक्यपुत्र ने मोक्ष देखा हैं ।"
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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