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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा १८ ग्रन्थाध्ययनम् श्रोताओं को वस्तुस्वरूप बताने में निपुण हो जाता है । एवं मोक्षार्थी पुरुष जिसे ग्रहण करते हैं, उसको आदान कहते हैं, वह सम्यग् ज्ञान आदि है, उस सम्यग्ज्ञान आदि से प्रयोजन रखता हुआ, वह साधु बारह प्रकार के तप और आश्रवों के निरोधरूप संयम को प्राप्त करके अर्थात् ग्रहण और आसेवना शिक्षा के द्वारा तप और संयम से युक्त होकर तथा उद्गमादि दोष रहित आहार से अपना निर्वाह करता हुआ समस्त कर्मों का क्षय स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । कहीं-कहीं "न उवेइ मारं" यह पाठ मिलता है, इसका अर्थ यह है- शुद्ध मार्ग से अपना निर्वाह करता हुआ साधु जिसमें प्राणिवर्ग अपने कर्म के आधीन होकर बार-बार मरते हैं, उस शोक से पूर्ण संसार को प्राप्त नहीं करता है अथवा प्राणत्याग को मार कहते हैं, उसको वह बार-बार प्राप्त नहीं करता है क्योंकि सम्यक्त्व को न त्यागनेवाला वह पुरुष उत्कृष्ट सात आठ भव तक ही मृत्यु को प्राप्त होता है, उसके बाद नहीं ||१७|| तदेवं गुरुकुलनिवासितया धर्मे सुस्थिता बहुश्रुताः प्रतिभानवन्तोऽर्थविशारदाश्च सन्तो यत्कुर्वन्ति तद्दर्शयितुमाहपूर्वोक्त प्रकार से गुरुकुल में निवास करने के कारण साधु धर्म में दृढ़, बहुश्रुत प्रतिभाशाली और पदार्थ के ज्ञान में निपुण होकर जो कार्य्य करते हैं, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं संखाइ धम्मं च वियागरंति, बुद्धा हु ते अंतकरा भवति । ते पारगा दोहवि मोयणाए, संसोधितं पण्हमुदाहरति - छाया - संख्यया धर्मं व्यागृणन्ति, बुद्धा हि तेऽन्तकरा भवन्ति । ते पारगा द्वयोरपि मोचनया, संशोधितं प्रश्नमुदाहरन्ति ॥ ।।१८।। अन्वयार्थ - (धम्मं च संखाइ वियागरंति) गुरुकुल में निवास करनेवाले पुरुष सद्बुद्धि से स्वयं धर्म को जानकर दूसरे को उपदेश करते हैं (ते बुद्धा हु अंतकरा भवंति ) तीनों काल को जाननेवाले वे पुरुष कर्मों का अन्त करनेवाले होते हैं (दोण्हवि मोयणाए ते पारगा) वे अपने और दूसरे के कर्म पाश को छुड़ाकर संसार से पार हो जाते हैं (संसोधितं पण्हमुदाहरति) वे सोच विचारकर प्रश्नों का उत्तर देते हैं । भावार्थ - गुरुकुल में निवास करनेवाले पुरुष सद्बुद्धि से धर्म को समझकर, दूसरे को उसका उपदेश करते हैं। तथा तीनों कालों को जाननेवाले वे पुरुष, पूर्वसंचित कर्मों का अन्त करते हैं। वे पुरुष अपने और दूसरे को कर्म पाश से मुक्त करके संसार से पार हो जाते हैं । वे पुरुष सोच-विचारकर प्रश्न का उत्तर देते हैं । - टीका सम्यक् ख्यायते-परिज्ञायते यया सा संख्या - सद्बुद्धिस्तया स्वतो धर्मं परिज्ञायापरेषां यथावस्थितं 'धर्मं' श्रुतचारित्राख्यं ‘व्यागृणन्ति' प्रतिपादयन्ति, यदिवा स्वपरशक्तिं परिज्ञाय पर्षदं वा प्रतिपाद्यं चार्थं सम्यगवबुध्य धर्मं प्रतिपादयन्ति । ते चैवंविधा बुद्धा: - कालत्रयवेदिनो जन्मान्तरसंचितानां कर्मणामन्तकरा भवन्ति अन्येषां च कर्मापनयनसमर्था भवन्तीति दर्शयति - ते यथावस्थितधर्मप्ररूपका 'द्वयोरपि' परात्मनोः कर्मपाशविमोचनया स्नेहादिनिगडविमोचनया वा करणभूतया संसारसमुद्रस्य पारगा भवन्ति, ते चैवंभूताः ? सम्यक्शोधितं पूर्वोत्तराविरुद्धं 'प्रश्नं' शब्दमुदाहरन्ति तथाहि - पूर्वं बुद्धया पर्यालोच्य कोऽयं पुरुषः कस्य चार्थस्य ग्रहणसमर्थोऽहं किंभूतार्थप्रतिपादनशक्त इत्येवं सम्यक् परीक्ष्य व्याकुर्यादिति, अथवा परेण कञ्चिदर्थं पृष्टस्तं प्रश्नं सम्यग् परीक्ष्योदाहरेत्-सम्यगुत्तरं दद्यादिति, तथा चोक्तम् " आयरियसयासा व धारिएण अत्थेण झरियमुणिरणं । तो संघमज्झयारे ववहरिडं जे सुहं होंति ||१|| " तदेवं ते गीतार्था यथावस्थितं धर्मं कथयन्तः स्वपरतारका भवन्तीति ॥१८॥ टीकार्थ जिसके द्वारा अच्छी तरह से पदार्थ जाना जाता है, उसे संख्या कहते हैं । वह उत्तम बुद्धि है। उस उत्तम बुद्धि के द्वारा वह साधु चारित्ररूप धर्म के यथार्थ स्वरूप को बताता है । अथवा गुरुकुल में निवास करनेवाले साधु अपनी और दूसरे की शक्ति को जानकर अथवा सभा और प्रतिपादन करने योग्य अर्थ को अच्छी 1. आचार्यसकाशाद् अवधारितेनार्थेन स्मारकेण ज्ञात्रा च ततः सङ्घमध्ये व्यवहर्तुं सुखं भवति ||१|| ५८९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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