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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा १७
ग्रन्थाध्ययनम् टीकार्थ - गुरुकुल में निवास करते हुए शिष्य ने जो उपदेश गुरु से सुना है और सुनकर अपने हृदय में अच्छी तरह निश्चित किया है. उस समाधि रूप मोक्ष मार्ग में अच्छी तरह रहकर मन, वच करने, कराने और अनुमति देने रूप तीनों करणों से अपनी रक्षा करे अथवा सदुपदेश देकर दूसरे प्राणियों की रक्षा करे । इस प्रकार जो साधु अपनी तथा दूसरे की रक्षा करता है तथा इन समिति और गुप्ति आदि समाधि मार्ग में अच्छी तरह स्थित रहता है, उसे शान्ति प्राप्त होती है, उसके सब द्वन्द्व निवृत्त हो जाते हैं, एवं उसके सम्पूर्ण दुःखों का क्षय हो जाता है । इस प्रकार इन बातों को जाननेवाले पुरुष कहते हैं । इन बातों को बतानेवाले कौन हैं ? सो शास्त्रकार कहते हैं- जो पुरुष ऊपर-नीचे और तिरच्छे रहनेवाले पदार्थों को देखते हैं, वे त्रिलोकदर्शी सर्वज्ञ तीर्थङ्कर केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थो को देखकर पूर्वोक्त बातों का उपदेश करते हैं। उन सर्वज्ञ पुरुषों ने समिति, गुप्ति आदि को ही संसार से पार करने में समर्थ बताया है, परन्तु मद्य और विषय सेवन आदि को नहीं।।१६।।
- किञ्चान्यत् -
- और दूसरे रूप से शिक्षानिसम्म से भिक्खु समीहियटुं, पडिभाणवं होइ विसारए य । आयाणअट्ठी वोदाणमोणं, उवेच्च सुद्धेण उवेति मोक्खं
॥१७॥ छाया - निशम्य स भिक्षुः समीहितार्थ, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्च ।
भादानार्थी व्यवदानमोनमुपेत्य शुद्धेनोपेति मोक्षम् ॥ अन्वयार्थ - (से भिक्खु) गुरुकुल में निवास करनेवाला वह साधु (निसम्म समीहियटुं) साधु के आचार को सुनकर तथा मोक्षरूपी इष्ट अर्थ को जानकर (पडिभाणवं विसारए होइ) बुद्धिमान् और अपने सिद्धान्त का वक्ता हो जाता है (आयाणअट्ठी) सम्यग्ज्ञान आदि अथवा मोक्ष से प्रयोजन रखनेवाला वह साधु (वोदाणमोणं उवेच्च) तप और संयम को प्राप्त करके (सुद्धेण मोक्खं उवेति) शुद्ध आहार के द्वारा मोक्ष को प्राप्त करता है।
भावार्थ - गुरुकुल में निवास करनेवाला साधु उत्तम साधु के आचार को सुनकर और अपने इष्ट अर्थ मोक्ष को जानकर बुद्धिमान् और अपने सिद्धान्त का वक्ता हो जाता है । तथा सम्यग्ज्ञान आदि से ही प्रयोजन रखता हुआ वह तप और संयम को प्रास करके शुद्ध आहार के द्वारा मोक्ष को प्रास करता है।
टीका - स गुरुकुलवासी भिक्षुः द्रव्यस्य वृत्तं 'निशम्य' अवगम्य स्वतः समीहितं चार्थ-मोक्षार्थं बुद्धवा हेयोपादेयं सम्यक् परिज्ञाय नित्यं गुरुकुलवासतः 'प्रतिभानवान्' उत्पन्नप्रतिभो भवति । तथा सम्यक् स्वसिद्धान्तपरिज्ञानाच्छ्रोतृणां यथावस्थितार्थानां 'विशारदो भवति' प्रतिपादको भवति । मोक्षार्थिनाऽऽदीयत इत्यादानं-सम्यग्ज्ञानादिकं तेनार्थः स एव वाऽर्थः आदानार्थः स विद्यते यस्यासावादानार्थी, स एवंभूतो ज्ञानादिप्रयोजनवान् व्यवदानं-द्वादशप्रकारं तपो मौनं-संयम आश्रवनिरोधरूपस्तदेवमेतौ तपःसंयमावपेत्य-प्राप्य ग्रहणासेवनरूपया द्विविधयापि शिक्षया समन्वितः सर्वत्र प्रमादरहितः प्रतिभानवान् विशारदश्च 'शुद्धन' निरुपाधिना उद्गमादिदोषशुद्धेन चाहारेणात्मानं यापयन्नशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षमुपैति 'न उवेइ मारं'ति क्वचित्पाठः बहुशो प्रियन्ते स्वकर्मपरवशाः प्राणिनो यस्मिन् स मारः संसारस्तं जातिजरामरणरोगशोकाकुलं शुद्धेन मार्गेणात्मानं वर्तयन् न उपैति, यदिवा मरणं-प्राणत्यागलक्षणं मारस्तं बहुशो नोपैति, तथाहि-अप्रतिपतितसम्यक्त्व उत्कृष्टतः 'सप्ताष्टौ वा भवान् म्रियते नोर्ध्वमिति ॥१७॥
टीकार्थ - गुरुकुल में निवास करनेवाला साधु मोक्ष जाने योग्य साधु के आचार को सुनकर तथा अपने इष्ट अर्थ मोक्ष को समझकर एवं त्याग करने योग्य और ग्रहण करने योग्य पदार्थों को अच्छी तरह जानकर सदा गुरुकल में रहने के कारण प्रतिभा से सम्पन्न हो जाता है । तथा वह साधु अपने सिद्धान्त का अच्छा ज्ञाता होकर 1. अट्ठभवा उ चरित्ते इति वचनाच्चारित्रयुतं सम्यक्त्वं परं प्रतिपाति तदिति अप्रतिपतितसम्यक्त्वं इति, जघन्याराधनया वा जन्मभिरष्टत्र्येकैः इति वचनात, सप्ताष्टाविति मनुष्यकायस्थित्यपेक्ष, सम्यक्त्वभवास्तु पल्योपमासंख्यभागमिताः ।
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