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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा १६ ग्रन्थाध्ययनम् द्रव्यं रागद्वेषविरहाद्वा द्रव्यं तस्य द्रव्यस्य-वीतरागस्य तीर्थङ्करस्य वा वृत्तम्-अनुष्ठानं संयमं ज्ञानं वा तत्प्रणीतमागमं वा सम्यगाचक्षाणः सपर्ययाऽयं माननीयो भवति । कथमित्याह- 'तद्' आचार्यादिना कथितं श्रोत्रे-कर्णे कर्तुं शीलमस्य श्रोत्रकारी-यथोपदेशकारी आज्ञाविधायी सन् पृथक् पृथगुपन्यस्तमादरेण हृदये प्रवेशयेत्-चेतसि व्यवस्थापयेत्, व्यवस्थापनीयं दर्शयति-'संख्याय' सम्यग् ज्ञात्वा 'इम' मिति वक्ष्यमाणं केवलिन इदं कैवलिकं-केवलिना कथितं समाधिं-सन्मार्ग सम्यग्ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमाचार्यादिना कथितं यथोपदेशं प्रवर्तकः पृथग् विविक्तं हृदये पृथग्व्यवस्थापयेदिति ॥१५॥ टीकार्थ - गुरुकुल में निवास करनेवाला शिष्य, प्रश्न करने योग्य काल को देखकर सदाचार का अनुष्ठान करनेवाले गुरु से जन्म धारण करनेवाली प्रजाओं के विषय में अर्थात् चौदह प्रकार के जीवों के सम्बन्ध में सूत्र अर्थ अथवा दोनों ही पूछे । शिष्य के प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्य का शिष्य सम्मान करे । जो शिक्षा आचार्य देते हैं, उसे शास्त्रकार दिखाते हैं- मुक्ति जाने योग्य भव्य पुरुष को द्रव्य कहते हैं अथवा जो पुरुष रागद्वेष रहित है, उसे द्रव्य कहते हैं, वह वीतराग अथवा तीर्थङ्कर हैं, उनके अनुष्ठान यानी संयम, ज्ञान अथवा उनके आगम की शिक्षा देनेवाले आचार्य का वह शिष्य पूजा के द्वारा सत्कार करे । किस प्रकार सत्कार करे ? सो बताते हैंआचार्य के द्वारा किये हुए उपदेश को वह शिष्य अपने कानों में धरे अर्थात् वह आचार्य के उपदेश का अनुष्ठान करता हुआ उनकी आज्ञा पालन करे तथा उनके उपदेश को अपने हृदय में स्थापित करे । अब शास्त्रकार हृदय में स्थापन करने योग्य विषय का उपदेश करते हैं- आगे कहा जानेवाला जो केवली सम्बन्धी मोक्ष मार्ग रूप सम्यग्ज्ञान आदि सन्मार्ग है, उसे आचार्य के द्वारा सुनकर तथा समझकर उस उपदेश के अनुसार प्रवृत्ति करता हुआ साधु उसे अपने हृदय में पवित्रता के साथ स्थापित करे ॥१५॥ - किञ्चान्यत् - - और दूसरे रूप से शिक्षाअस्सिं सुठिच्चा तिविहेण तायी, एएस या संति निरोहमाहू । ते एवमक्खंति तिलोगदंसी, ण भुज्जमेयंति पमायसंगं ॥१६॥ छाया - अस्मिन् सुस्थाय त्रिविधेन त्रायी, एतेषु च शान्तिं निरोधमाहुः । त एवमाचक्षते त्रिलोकदर्शिनः न भूय एतन्तु प्रमादसञ्जम् ॥ अन्वयार्थ - (अस्सिं सठिच्चा तिविहेण तायी) गरु ने जो उपदेश दिया है, उसमें अच्छी तरह निवास करता हआ साथ मन, वचन और काया से सब प्राणियों की रक्षा करे (एएसु या संति निरोहमाहु) समिति और गुप्ति के पालन से ही शान्ति और कर्मों का क्षय होना सर्वज्ञों ने कहा है। (तिलोगदंसी ते एवमक्खंति) त्रिलोकदर्शी वे पुरुष यह कहते हैं कि (ण भुज्जमेयंति पमायसंग) साधु को फिर कभी प्रमाद का सङ्ग न करना चाहिए। भावार्थ - गुरु के उपदेश में अच्छी तरह निवास करता हुआ साधु मन, वचन और काया से प्राणियों की रक्षा करे, इस प्रकार समिति और गुप्ति के पालन से ही सर्वज्ञों ने शान्ति लाभ और कर्मों का क्षय होना बताया है । वे त्रिलोकदर्शी पुरुष कहते हैं कि साधु फिर कभी प्रमाद का सङ्ग न करे । - 'अस्मिन्' गुरुकुलवासे निवसता यच्छ्रुतं श्रुत्वा च सम्यग् हृदयव्यवस्थापनद्वारेणावधारितं तस्मिन् समाधिभुते मोक्षमार्गे सुष्ठु स्थित्वा 'त्रिविधेने'ति मनोवाक्कायकर्मभिः कृतकारितानुमतिभिर्वाऽऽत्मानं त्रातुं शीलमस्येति त्रायी जन्तूनां सदुपदेशदानतस्त्राणकरणशीलो वा तस्य स्वपरत्रायिणः, एतेषु च समितिगुप्त्यादिषु समाधिमार्गेषु स्थितस्य शान्तिर्भवति-अशेषद्वन्द्वोपरमो भवति तथा निरोधम्-अशेषकर्मक्षयरूपम् 'आहुः' तद्विदः प्रतिपादितवन्तः, क एवमाहुरित्याह-त्रिलोकम्-ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लक्षणं द्रष्टुं शीलं येषां ते त्रिलोकदर्शिनः-तीर्थकृतः सर्वज्ञास्ते 'एवम्' अनन्तरोक्तया नीत्या सर्वभावान् केवलालोकेन दृष्ट्वा 'आचक्षते' प्रतिपादयन्तीति । एतदेव समितिगुप्त्यादिकं संसारोत्तारणसमर्थं ते त्रिलोकदर्शिनः कथितवन्तो न पुनर्भूय एतं (नं) 'प्रमादसङ्ग' मद्यविषयादिकं संबन्धं विधेयत्वेन प्रतिपादितवन्तः॥१६॥ ५८७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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