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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा ९ ग्रन्थाध्ययनम् अत्युत्थिताः, यदिवा-दासीत्वेन अत्यन्तमुत्थिता दास्या अपि दासीति, तामेव विशिनष्टि-'घटदास्या' जलवाहिन्यापि चोदितो न क्रोधं कुर्यात्, एतदुक्तं भवति-अत्युत्थितयाऽतिकुपितयाऽपि चोदितः स्वहितं मन्यमानः सुसाधुन कुप्येत्, किं पुनरन्येनेति ?, तथा 'अगारिणां' गृहस्थानां यः 'समयः अनुष्ठानं तत्समयेनानुशासितो, गृहस्थानामपि एतन्न युज्यते कर्तुं यदारब्धं भवतेत्येवमात्मावमेनापि चोदितो ममैवैतच्छ्रेय इत्येव मन्यमानो मनागपि न मनो दूषयेदिति।।८।। टीकार्थ - जो शास्त्र विरुद्ध कार्य करता है, उसे व्युत्थित कहते हैं, वह परतीर्थी, गृहस्थ और मिथ्यादृष्टि हैं, वे लोग साधु से चूक होने पर यदि साधु के सिद्धान्त का उपदेश करें और कहें कि- "आप जो आचरण कर रहे हैं, वह आपके आगम में कहा नहीं है ।" अथवा संयम से भ्रष्ट कोई पुरुष मूलगुण तथा उत्तरगुण के पालन में चूके हुए साधु को तीर्थंकर प्रणीत आगम का दाखला देकर शिक्षा दे और कहे कि आपका जल्दी जल्दी चलना शास्त्र विहित नहीं है । तथा अन्य कोई मिथ्यादृष्टि, अवस्था में छोटा या बड़ा तथा समान अवस्थावाला पुरुष निन्दनीय आचार करते हुए साधु को उत्तम आचार की शिक्षा दे तथा जो दासी की भी दासी है अर्थात् जो जलवहन किया करती है, वह भी यदि साधु को शुभ आचार की शिक्षा दे तो साधु को क्रोध नहीं करना चाहिए। आशय यह है कि- अत्यन्त कपित होकर दासी भी यदि उत्तम आचार की शिक्षा दे तो साध उसे अपना हित समझकर क्रोध न करे, फिर दूसरे की शिक्षा पर क्रोध करने की तो बात ही क्या है ? । यदि कोई साधु को शिक्षा देता हुआ कहे कि- "जो कार्य आप करते हैं, वह तो गृहस्थों के योग्य भी नहीं है।" इस प्रकार साधु को अपमान के साथ भी यदि अच्छी शिक्षा देवे तो साधु समझे कि इसी में मेरा कल्याण है और यह समझकर थोड़ा भी मन में दुःख नहीं माने ।।८।। - एतदेवाह - - यही शास्त्रकार कहते हैं - ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेज्जा, ण यावि किंची फरुसं वदेज्जा । तहा करिस्संति पडिस्सुणेज्जा, सेयं खु मेयं ण पमायं कुज्जा ॥९ ॥ छाया - न तेषु क्रुध्येच च प्रव्यथयेच चाऽपि किचित्परुष वदेत् । तथा करिष्यामीति प्रतिशृणुयात्, श्रेयः खलु ममेदं न प्रमादं कुर्य्यात् ॥ अन्वयार्थ - (तेसु ण कुज्झे) पूर्वोक्त रूप से शिक्षा देनेवालों पर साधु क्रोध न करे (ण य पव्वहेज्जा) तथा उन्हें पीड़ित न करे (ण यावि किंचि फरुसं वदेज्जा) एवं उन्हें कटु शब्द न कहे (तहा करिस्संति पडिसुणेज्जा) किन्तु मैं अब से ऐसा ही करूंगा, यह साधु प्रतिज्ञा करे (सेयं खु मेयं) और वह यह समझे कि इसमें मेरा ही कल्याण है । (ण पमायं कुज्जा) इसलिए प्रमाद न करे । भावार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से शिक्षा दिया हुआ साधु शिक्षा देनेवालों पर क्रोध न करे तथा उन्हें पीड़ित न करे एवं कटु वचन न कहे किन्तु- "अब मैं ऐसा ही करूंगा" ऐसी प्रतिज्ञा करता हुआ साधु प्रमाद न करे । टीका - 'तेषु' स्वपरपक्षेषु स्खलितचोदकेष्वात्महितं मन्यमानो न क्रुध्येद् अन्यस्मिन् वा दुर्वचनेऽभिहिते न कुप्येद् एवं च चिन्तयेत्'आक्रुष्टेन मतिमता तत्वार्थविचारणे मतिः कार्या । यदि सत्यं कः कोपः? स्यादनृतं किं नु कोपेन?||१|| तथा नाप्यपरेण स्वतोऽधमेनापि चोदितोऽर्हन्मार्गानुसारेण लोकाचारगत्या वाऽभिहितः परमार्थं पर्यालोच्य तं चोदकं प्रकर्षेण 'व्यथेत्' दण्डादिप्रहारेण पीडयेत् न चापि किञ्चित्परुषं तत्पीडादिकारि 'वदेत्' ब्रूयात्, ममैवायमसदनुष्ठायिनो दोषो येनायमपि मामेवं चोदयति, चोदितश्चैवंविधं भवता असदाचरणं न विधेयमेवंविधं च पूर्वर्षिभिरनुष्ठितमनुष्ठेयमित्येवंविधं वाक्यं तथा करिष्यामीत्येवं मध्यस्थवृत्त्या प्रतिशृणुयाद् अनुतिष्ठेच्च-मिथ्यादुष्कृतादिना निवर्तेत, यदेतच्चोदनं नामैतन्ममेव श्रेयो, यत एतद्वयात्क्वचित्पुनः प्रमादं न कुर्यान्नवासदाचरणमनुतिष्ठेदिति ॥९॥
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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