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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा ८
ग्रन्थाध्ययनम् भवद्विधानामिदमीदृक् प्रमादाचरणमासेवितुमयुक्तं, तथा 'रत्नाधिकेन वा' प्रव्रज्यापर्यायाधिकेन श्रुताधिकेन वा समवयसा वा 'अनुशासितः' प्रमादस्खलिताचरणं प्रति चोदितः कुप्यति यथा अहमप्यनेन द्रमकप्रायेणोत्तमकुलप्रसूतः सर्वजनसंमत इत्येवं चोदित इत्येवमनुशास्यमानो न मिथ्यादुष्कृतं ददाति न सम्यगुत्थानेनोत्तिष्ठति नापि तदनुशासनं सम्यक् स्थिरत:अपुनःकरणतयाऽभिगच्छेत्-प्रतिपद्येत, चोदितश्च प्रतिचोदयेद्, असम्यक् प्रतिपद्यमानश्चासौ संसारस्रोतसा 'नीयमान' उह्यमानोऽनुशास्यमानः कुपितोऽसौ न संसारार्णवस्य पारगो भवति । यदिवाऽऽचार्यादिना सदपदेशदानतः प्रमादस्खलितनिवर्तनतो मोक्षं प्रति नीयमानोऽप्यसौ संसारसमुद्रस्य तदकरणतोऽपारग एव भवतीति ॥७॥
टीकार्थ - गुरुकुल में निवास करता हुआ साधु यदि किसी विषय में प्रमाद वश भूल करता है तो उसको अवस्था अथवा पर्याय में छोटा साधु प्रमाद करने का निषेध करता है अथवा उससे शास्त्र में अथवा अवस्था में बड़ा साधु निषेध करता है, वह कहता है कि- "आप जैसे योग्य पुरुष को इस प्रकार प्रमाद न करना चाहिए।" तथा प्रव्रज्या के पर्याय में अधिक या शास्त्र में अधिक अथवा समान अवस्थावाले साधु उसे प्रमाद न करने की शिक्षा देते हैं । इस प्रकार शिक्षा दिया हुआ वह साधु यदि शिक्षा देनेवालों के ऊपर क्रोध करता है और कहता है कि- "मैं उत्तम कुल में जन्मा हूँ, मुझे सब लोग मान देते हैं, मेरे जैसे को यह तुच्छ जीव इस प्रकार शिक्षा दे रहा है ?" इस प्रकार क्रोधित होकर वह अपने आचरण के लिए- "मिच्छा मि दुक्कडं" नहीं देता है और फिर अपने को सम्हालता नहीं तथा उस शिक्षा को पाकर भी फिर भूल न करने के लिए, उस बात को मानता नहीं है और शिक्षा देनेवाले को प्रत्युत्तर देता है तो वह साधु संसार के प्रवाह में बह जाता है। वह शिक्षा देने पर क्रोध करता है इसलिए वह संसार सागर को पार करने में समर्थ नहीं होता । अथवा आचार्य आदि उसे सदुपदेश देकर और प्रमाद वश भूल करने की निवृत्ति की शिक्षा देकर यद्यपि उसे मोक्ष की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं तथापि वह उनकी शिक्षा के अनुसार आचरण न करने के कारण संसार सागर को पार नहीं करता ॥७॥
- साम्प्रतं स्वपक्षचोदनानन्तरतः (२)स्वपरचोदनामधिकृत्याह -
- अपने पक्षवाले साधुओं के द्वारा दी हुई शिक्षा बताने के पश्चात् अपने और दूसरे पक्षवालों के द्वारा दी जानेवाली शिक्षा के विषय में शास्त्रकार कहते हैं - विउद्वितेणं समयाणुसिढे, डहरेण वुड्ढेण उ चोइए य । अच्चुट्टियाए घडदासिए वा, अगारिणं वा समयाणुसिट्टे
॥८॥ छाया - व्युत्थितेन समयानुशिष्टो डहरेण वृद्धेन तु चोदितश्च ।
अत्युत्थितया घटदास्यावाऽगारिणां वा समयानुशिष्टः ॥ अन्वयार्थ - (विउट्ठितेणं समयाणुसिढे) शास्त्र विरुद्ध कार्य करनेवाले गृहस्थ तथा परतीर्थी आदि के द्वारा अर्हद्दर्शन के आचार की शिक्षा दिया हुआ साधु (डहरेण वुड्ढेण उ चोइए य) तथा अवस्था में छोटे या बड़े के द्वारा शुभ कार्य की ओर प्रेरित किया हुआ (अच्चुट्टियाए घडदासिए वा) अथवा अत्यन्त निन्दनीय कर्म करनेवाली घटदासी के द्वारा भी धर्म कार्य का उपदेश किया हुआ (अगारिणं वा समयाणुसिटे) अथवा किसी के द्वारा यह कहा हुआ कि- “यह कार्य तो गृहस्थ के योग्य भी नहीं है फिर साधुओं की तो बात ही क्या है ?" साधु क्रोध न करे ।
भावार्थ - शास्त्र विरुद्ध कार्य करनेवाला गृहस्थ, परतीर्थी आदि तथा अवस्था में छोटे या बड़े एवं अत्यन्त निन्दित घटदासी यदि साधु को शुभ आचरण करने की शिक्षा दे तो भी साधु को क्रोध नहीं करना चाहिए ।
टीका - विरुद्धोत्थानेनोत्थितो व्युत्थितः-परतीर्थिको गृहस्थो वा मिथ्यादृष्टिस्तेन प्रमादस्खलिते चोदितः स्वसमयेन, तद्यथा- नैवंविधमनुष्ठानं भवतामागमे व्यवस्थितं येनाभिप्रवृत्तोऽसि, यदिवा व्युत्थितः-संयमाद्भ्रष्टस्तेनापरः साधुः स्खलितः सन् स्वसमयेन-अर्हत्प्रणीतागमानुसारेणानुशासितो मूलोत्तरगुणाचरणे स्खलितः सन् 'चोदित' आगमं प्रदाभिहितः, तद्यथा- नैतत्त्वरितगमनादिकं भवतामनुज्ञातमिति, तथा अन्येन वा मिथ्यादृष्टयादिना 'क्षुल्लकेन' लघुतरेण वयसा वृद्धेन वा कुत्सिताचारप्रवृत्तश्चोदितः, तुशब्दात्समानवयसा वा तथा अतीवाकार्यकरणं प्रति उत्थिता
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