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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा १० ग्रन्थाध्ययनम् - टीकार्थ साधु से संयम पालन में भूल होने पर अपने पक्षवाले अथवा अन्य पक्षवाले यदि उसकी भूल बताये तो उसी में अपना हित समझकर साधु बतानेवालों पर क्रोध न करे, यदि वे किसी प्रकार का दुर्वचन कहें तो भी साधु क्रोध न करे, किन्तु यह विचार करे कि - (आक्रुष्टेन) किसी के द्वारा की जाती हुई अपनी निन्दा को सुनकर बुद्धिमान् पुरुष सत्य बात के अन्वेषण में अपनी बुद्धि लगावे और यह समझे कि यदि यह निन्दा सच्ची है तो फिर क्रोध क्यों करना चाहिए ? | और यदि मिथ्या है तो भी क्रोध की क्या आवश्यकता है ? | अपने से छोटा मनुष्य भी यदि जिनमार्ग की शिक्षा दे अथवा लोकाचार के विषय में कुछ कहे तो साधु परमार्थ को विचार करके दण्ड आदि के प्रहार से कहनेवालों को पीड़ित न करे तथा कटुवचन कहकर उसको सन्तप्त भी न करे, किन्तु वह यह समझे कि - "मेरा असत् अनुष्ठान का ही यह फल है, जिससे यह मुझको ऐसी प्रेरणा करता है । यदि शिक्षा देनेवाला वह पुरुष यह कहे कि - "आप को ऐसा अनुचित आचरण नहीं करना चाहिए। किन्तु पूर्व के ऋषियों से आचरित अमुक मार्ग का अनुष्ठान करना चाहिए।" तो साधु मध्यस्थवृत्ति से यह प्रतिज्ञा करे कि - "मैं अब ऐसा ही करूंगा ।" तथा अपने पहले के अनुचित आचरण के लिए 'मिच्छामि दुक्कडं" देवे। पूर्वोक्त शिक्षा के द्वारा साधु यह समझे कि इन लोगों ने जो उपदेश किया है, इसमें मेरा ही कल्याण है, क्योंकि इस शिक्षा के कारण अब कभी मेरे से ऐसा अनुचित कार्य्य नहीं होगा । इस प्रकार समझकर साधु कभी भी असत् आचरण न करे ॥९॥ अस्यार्थस्य दृष्टान्तं दर्शयितुमाह अब शास्त्रकार इसी बात को दृष्टान्त देकर समझाते हैं वसि मूढस्स जहा अमूढा, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तेणेव (तेणावि) मज्झं इणमेव सेयं, जं मे बुहा समणुसासयंति www 118011 छाया वने मूढस्य यथाऽमूढाः, मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् । तेनाऽपि महामिदमेव श्रेयः यन्मे वृद्धाः सम्यगनुशासति ॥ अन्वयार्थ - (जहा अमूढा) जैसे मार्ग जाननेवाले पुरुष (वर्णसि मूढस्स) जङ्गल में मार्ग भूले हुए पुरुष को (पयाणं हितं मग्गाणुसासंति) प्रजाओं के हितकारक मार्ग की शिक्षा देते हैं (तेणेव मज्झं इणमेव सेयं) इसी तरह मेरे लिये भी यही कल्याणकारक उपदेश है (जं मे बुहा समणुसासंयति) जो मुझ को वृद्ध पुरुष शिक्षा देते हैं । भावार्थ - जैसे जङ्गल में भूला हुआ पुरुष मार्ग जाननेवाले के द्वारा मार्ग की शिक्षा पाकर प्रसन्न होता है और समझता है कि- इस उपदेश से मुझ को कल्याण की प्राप्ति होगी, इसी तरह उत्तम मार्ग की शिक्षा देनेवाले जीव के ऊपर साधु प्रसन्न रहे और यह समझे कि ये लोग जो उपदेश करते हैं, इसमें मेरा ही कल्याण है । टीका – 'वने' गहने महाटव्यां दिग्भ्रमेण कस्यचिद्व्याकुलितमतेर्नष्टसत्पथस्य यथा केचिदपरे कृपाकृष्टमानसा ‘अमूढा:' सदसन्मार्गज्ञाः कुमार्गपरिहारेण प्रजानां 'हितम्' अशेषापायरहितमीप्सितस्थानप्रापकं 'मार्ग' पन्थानम् 'अनुशासति' प्रतिपादयन्ति, स च तैः सदसद्विवेकिभिः सन्मार्गावतरणमनुशासित आत्मनः श्रेयो मन्यते, एवं तेनाप्यसदनुष्ठायिना चोदितेन न कुपितव्यम्, अपितु ममायमनुग्रह इत्येवं मन्तव्यं, यदेतद् बुद्धाः सम्यगनुशासयन्ति सन्मार्गे - ऽवतारयन्ति पुत्रमिव पितरः तन्ममैव श्रेय इति मन्तव्यम् ॥१०॥ - टीकार्थ जैसे घोर जङ्गल में किसी मनुष्य को दिशा का भ्रम हो गया है, इस कारण वह घबरा रहा है और वह अच्छे मार्ग का ज्ञान भूल गया है, उस पुरुष पर कृपा करके यदि सत् और असत् मार्ग को जाननेवाला कोई पुरुष कुमार्ग को छोड़कर जिसमें प्रजा का मङ्गल होता है, ऐसे निर्विघ्न और इष्ट स्थान पर पहुँचानेवाला मार्ग बताता है तो वह दिग्मूढ़ पुरुष सन्मार्ग का उपदेश पाकर अपना कल्याण मानता है, इसी तरह असत् मार्ग में प्रवृत्त ५८२
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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