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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा ५ ग्रन्थाध्ययनम् तथाऽजां गलविलग्नवालुकां पार्णिप्रहारेण प्रगुणां दृष्ट्वाऽपरोऽनुपासितगुरुरज्ञो राज्ञीं संजातगलगण्डां पार्ष्णप्रहारेण व्यापादितवान, इत्यादयः अनपासितगरोर्बहवो दोषाः संसारवर्धनाद्या भवन्तीत्यवगम्यानया मर्यादया गरोरन्तिके स्थातव्यमिति दर्शयति- 'अवभासयन्' उद्धासयन् सम्यगनुतिष्ठन् 'द्रव्यस्य' मुक्तिगमनयोग्यस्य सत्साधो रागद्वेषरहितस्य सर्वज्ञस्य वा वृत्तम्-अनुष्ठानं तत्सदनुष्ठानतोऽवभासयेद्, धर्मकथिकः कथनतो वोद्भासयेदिति । तदेवं यतो गुरुकुलवासो बहूनां गुणानामाधारो भवत्यतो 'न निष्कसेत्' न निर्गच्छेत् गच्छाद्गुर्वन्तिकाद्वा बहिः, स्वेच्छाचारी न भवेद्, 'आशुप्रज्ञ' इति क्षिप्रप्रज्ञः, तदन्तिके निवसन् विषयकषायाभ्यामात्मानं ह्रियमाणं ज्ञात्वा क्षिप्रमेवाचार्योपदेशात्स्वत एव वा 'निवर्तयति' सत्समाधौ व्यवस्थापयतीति ॥४॥ टीकार्थ - मनुष्य, जीवन पर्यन्त गुरु के निकट निवास करने और उत्तम मार्ग के अनुष्ठान करने की इच्छा करे । वही परुष सच्चा मनष्य है, जो अपनी प्रतिज्ञा का पर्णरूपेण पालन करता है। पास निवास करने और उत्तम अनुष्ठान करने से पाली जाती है, अन्यथा नहीं, यह शास्त्रकार दिखाते हैं - जो पुरुष गुरु के निकट निवास नहीं करता और स्वच्छन्द होकर कार्य करता है, वह प्रतिज्ञा किये हुए उत्तम अनुष्ठानरूप कार्य को पार नहीं लगा सकता यह जानकर सदा गुरुकुल में निवास करना चाहिए, जो गुरुकुल में निवास नहीं करता है, उसका ज्ञान हास्य के लिए होता है। अत एव कहा है कि गुरुकुल की उपासना नहीं किये हुए पुरुष का विज्ञान उसकी रक्षा करने के लिए समर्थ नहीं होता क्योंकि गुरु के उपदेश के बिना अपने अनुभव से नाचनेवाले मयूर का पिछला भाग उघाड़ा हो जाता है । जैसा किसी बकरी के गले में लगी हई रेती को पैर से मारकर झाड़ते हए ऐसे किसी को देखकर गुरु की उपासना नहीं किये हुए किसी मूर्ख ने गले के रोग की निवृत्ति पैर के मारने से होती है, यह जानकर गले में गण्डरोग से पीडित किसी रानी के गले में पैर मारकर रानी को मार डाला था। इस प्रकार गुरु की उपासना नहीं किये हुए पुरुष में संसार की वृद्धि आदि बहुत से दोष उत्पन्न होते हैं, अतः पुरुष को आगे कही जानेवाली मर्यादा के साथ गुरु के पास निवास करना चाहिए, यह शास्त्रकार बताते हैं- विद्वान् पुरुष मुक्ति जाने योग्य साधु के अथवा रागद्वेष रहित सर्वज्ञ पुरुष के अनुष्ठान को उत्तम आचरण के द्वारा प्रकाशितकर अथवा धर्मकथा कहकर उसे प्रकट करे । गुरुकुल में निवास करना बहुत गुण के लिए होता है, इसलिए साधु गच्छ से या गुरु के पास से अलग न जावे तथा वह स्वेच्छाचारी न बनें। बुद्धिमान् पुरुष गुरु के निकट निवास करता हुआ अपने आत्मा को विषय और कषायों से हरण किया जाता हुआ जानकर आचार्य के उपदेश से अथवा स्वयमेव उसे हटा लेता है और उसे समाधि में स्थापित करता है ॥४॥ - तदेवं प्रव्रज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासमावसन् सर्वत्र स्थानशयनासनादावुपयुक्तो भवी तदुपयुक्तस्य च गुणमुद्भावयन्नाह - - इस प्रकार दीक्षा लेकर जो पुरुष सदा गुरुकुल में निवास करता हुआ सदा स्थान, शयन और आसन आदि में उपयोग रखता है, उसको जो गुण प्राप्त होता है, उसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - जे ठाणओ य सयणासणे य, परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते । समितीसु गुत्तीसु य आयपन्ने, वियागरिते य पुढो वएज्जा ॥५॥ छाया - यः स्थानतश्च शयनासनाध्याच पराक्रमतश्च सुसाधुयुक्तः । समितिषु गुप्तिषु चावगतप्रहः, व्याकुवंश्च पृथग् वदेत् ॥ अन्वयार्थ - (ठाणओ सयणासणे य परक्कमे यावि सुसाहुजुत्ते) गुरुकुल में निवास करनेवाला पुरुष स्थान, आसन, शयन और पराक्रम के द्वारा उत्तम साधु के समान आचरण करता है तथा (समितिसु गुत्तीसु य आसुपन्ने) वह समिति और गुप्ति के विषय में खूब ज्ञानवान् हो जाता ५७७
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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