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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहित चतुर्दशमध्ययने गाथा ४ ग्रन्थाध्ययनम् ___टीकार्थ - (यहाँ तु शब्द पूर्व गाथा से विशेषता बताता है) पूर्व गाथा में पक्ष उत्पन्न न होने से असमर्थता कही है और इस गाथा में धर्म में परिपक्वता न होने से असमर्थता बताई है, यह विशेषता है। जैसे अपने घोसले से बाहर निकले हुए पक्ष रहित पक्षी के बच्चे को हिंसक पक्षी मार डालते हैं, इसी तरह सूत्र के अर्थ में अनिपुण तथा धर्म के तत्त्व को अच्छी तरह न जाननेवाले नवदीक्षित शिष्य को बहुत से पाखण्डी प्रतारण करते है और प्रतारण करके गच्छ समुद्र से बाहर निकाल देते हैं । बाहर निकाले हुए उसे वे विषयी और परलोक के भय से रहित बना देते हैं । इसके पश्चात् उसे अपने वशीभूत मानते हुए अथवा चारित्र को निःसार समझते हुए पक्ष रहित पक्षी के बच्चे को ढंक आदि पक्षी की तरह हर लेते हैं । मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय से जिनका हृदय मलिन है, ऐसे कुतीर्थी, स्वजन, और राजा आदि बहुत पापियों ने ऐसे शिष्य को हर लिया है और हर रहे हैं तथा हरेंगे। यहाँ भूतकाल का निर्देश तीनों कालों का उपलक्षण है। पाखण्डी पुरुष, धर्म में अनिपुण साधु को इस प्रकार धोखा देते हैं, वे कहते हैं कि तुम्हारे दर्शन में आग जलाने, विष हरण करने और शिखाच्छेदन करने आदि नहीं कहे गये हैं तथा अणिमा आदि आठ ऐश्वर्यों का कथन भी नहीं है एवं राजा आदि बहुत से लोग उसे मानते भी नहीं हैं। तथा आपके दर्शन में जो अहिंसा कही है, वह भी संसार जीवों से भरा हुआ होने के कारण साध्य नहीं है तथा स्नान आदि शौच भी आप लोगों के दर्शन में नहीं है, इस प्रकार इन्द्रजाल की तरह शठतामय वचनों से वे भोले जीवों को ठग लेते हैं । एवं उसके स्वजन वर्ग इस प्रकार उसे ठगते हैं कि- हे आयुष्मन् ! आपके बिना हमारा दूसरा पोषण करनेवाला या पोषण करने योग्य नहीं है । आप ही हमारे सर्वस्व है, आपके बिना हम को सब शून्य-सा दीखता है । तथा शब्दादि विषयों के उपभोग का आमन्त्रण देकर वे उसे उत्तमधर्म से भ्रष्ट कर देते हैं। इसी तरह राजा आदि भी करते हैं । इस प्रकार धर्म में अनिपुण अकेले विचरनेवाले साधु को अनेक प्रकार से ठगकर पापी जीव उस साधु को हर लेते हैं ॥३॥ - तदेवमेकाकिनः साधोर्यतो बहवो दोषाः प्रादुर्भवन्ति अतः सदा गुरुपादमूले स्थातव्यमित्येदद्दर्शयितुमाह - - पूर्वोक्त प्रकार से अकेले साधु में बहुत से दोष उत्पन्न होते हैं इसलिए सदा गुरु के चरण की सेवा में ही रहना चाहिए यह शास्त्रकार दिखाते हैं - ओसाणमिच्छे मणए समाहिं, अणोसिए णंतकरिति णच्चा । ओभासमाणे दवियस्स वित्तं, ण णिक्कसे बहिया आसुपन्नो ॥४॥ छाया - अवसानमिच्छेन्मनुजः समाधिमनुषितो नान्तकर इति हात्वा । ___ अवभासयन् द्रव्यस्य वृत्तं, न निष्कसेदहिराशुप्रज्ञः || अन्वयार्थ - (मणुए) मनुष्य (अणोसिए णंतकरिति णच्चा) गुरुकुल में निवास न करनेवाले कर्मों का नाश नही कर सकता है, यह जानकर (ओसाणं समाहि इच्छे) गुरुकुल में निवास और समाधि की इच्छा करे (दवियस्स वित्तं ओभासमाणे) मुक्तिगमन योग्य पुरुष के आचरण को स्वीकार करता हुआ (आसुपनो बहिया ण णिक्कसे) बुद्धिमान् पुरुष गच्छ से बाहर न निकले । भावार्थ- जो पुरुष गुरुकुल में निवास नहीं करता, वह अपने कर्मों का नाश नहीं कर सकता, यह जानकर पुरुष सदा गुरुकुल में निवास करे और समाधि की इच्छा रखे । वह मुक्ति जाने योग्य पुरुष के आचरण को स्वीकार करे और गच्छ से बाहर न जाय । टीका - 'अवसानं' गुरोरन्तिके स्थानं तद्यावज्जीवं 'समाधि' सन्मार्गानुष्ठानरूपम् ‘इच्छेद्' अभिलषेत् 'मनुजो' मनुष्यः साधुरित्यर्थः, स एव च परमार्थतो मनुष्यो यो यथाप्रतिज्ञातं निर्वाहयति, तच्च सदा गुरोरन्तिके व्यवस्थितेन सदनुष्ठानरूपं समाधिमनुपालयता निर्वाह्यते नान्यथेत्येतद्दर्शयति-गुरोरन्तिके 'अनुषितः' अव्यवस्थितः स्वच्छन्दविधायी समाधेः सदनुष्ठानरूपस्य कर्मणो यथाप्रतिज्ञातस्य वा नान्तकरो भवतीत्येवं ज्ञात्वा सदा गुरुकुलवासोऽनुसर्तव्यः, तद्रहितस्य विज्ञानमुपहास्यप्रायं भवतीति, उक्तं च"न हि भवति निर्विगोपकमनुपासितगुरुकुलस्य विज्ञानम् । प्रकटितपश्चाद्धागं पश्यत नृत्यं मयूरस्य ||१||" ५७६
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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