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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा ६
है ( वियागरिते य पुढो वएज्जा ) तथा वह समिति और गुप्ति का यथार्थ स्वरूप दूसरे को भी बताता है ।
भावार्थ - गुरुकुल में निवास करनेवाला साधु स्थान, शयन, आसन और पराक्रम के विषय में उत्तम साधु के समान आचरण करता है तथा वह समिति गुप्ति के विषय में पूर्णरूप से प्रवीण हो जाता है और दूसरे को भी उसका उपदेश करता है ।
यो हि निर्विण्णसंसारतया प्रव्रज्यामभि उद्यतो नित्यं गुरुकुलवासतः 'स्थानतश्च' स्थानमाश्रित्य तथा शयनत आसनतः, एकश्चकारः समुच्चये द्वितीयोऽनुक्तसमुच्चयार्थः चकाराद्गमनमाश्रित्यागमनं च तथा तपश्चरणादौ पराक्रमतश्च, (सु) साधोः - उद्युक्तविहारिणो ये समाचारास्तैः समायुक्तः सुसाधुयुक्तः सुसाधुर्हि यत्र स्थानं कायोत्सर्गादिकं विधत्ते तत्र सम्यक् प्रत्युपेक्षणादिकां क्रियां करोति, कायोत्सर्गं च मेरुरिव निष्प्रकम्पः शरीरनिःस्पृहो विधत्ते, तथा शयनं च कुर्वन् प्रत्युपेक्ष्य संस्तारकं तद्भुवं कायं चोदितकाले गुरुभिरनुज्ञातः स्वपेत्, तत्रापि जाग्रदिव नात्यन्तं निःसह इति । एवमासनादिष्वपि तिष्ठता पूर्ववत्संकुचितगात्रेण स्वाध्यायध्यानपरायणेन सुसाधुना भवितव्यमिति, तदेवमादिसुसाधुक्रियायुक्तो गुरुकुलनिवासी सुसाधुर्भवतीति स्थितम् । अपिच - गुरुकुलवासे निवसन् पञ्चसु समितिष्वीर्यासमित्यादिषु प्रविचाररूपासु तथा तिसृषु च गुप्तिषु प्रविचाराप्रविचाररूपासु आगताः - उत्पन्ना प्रज्ञा यस्यासावागतप्रज्ञः संजातकर्तव्यविवेकः स्वतो भवति, परस्यापि च 'व्याकुर्वन्' कथयन् पृथक् पृथग्गुरोः प्रसादात्परिज्ञातस्वरूपः समितिगुप्तीनां यथावस्थितस्वरूपप्रतिपालनं तत्फलं च 'वदेत्' प्रतिपादयेदिति ॥५॥
टीकार्थ संसार से विरक्त दीक्षा लिया हुआ पुरुष सदा गुरुकुल में निवास करने से स्थान, शयन, आसन (एक चकार समुच्चय अर्थ में है और दूसरा अनुक्त समुच्चयार्थक है) तथा चकार से गमन, आगमन और तपस्या के विषय में पराक्रम करता हुआ उत्तम साधु का जो आचरण है, उससे वह युक्त होता है । उत्तम साधु जिस स्थान में कायोत्सर्ग करता है, उसको वह अच्छी तरह देखकर तथा प्रमार्जन करके कायोत्सर्ग करता है । तथा वह कायोत्सर्ग भी मेरु पर्वत के समान कम्प रहित एवं शरीर से निःस्पृह होकर करता है। वह शयन करने के समय बिछौना जमीन और अपने शरीर को देखकर गुरु की आज्ञा लेकर शास्त्रोक्त काल में शयन करता है तथा वह सोया हुआ भी जागते हुए के समान सतर्क रहता है, अत्यन्त भान रहित नहीं होता । इसी तरह आसन आदि पर बैठता हुआ, वह अपने गात्र को संकुचित करके बैठता है तथा स्वाध्याय और ध्यान में सदा तत्पर रहता है । इस प्रकार उत्तम साधु की क्रिया से युक्त गुरुकुल निवासी साधु होता है, यह सिद्ध हुआ । तथा गुरुकुल में निवास करनेवाला पुरुष ईर्ष्यासमिति आदि विचाररूप पाँच समितिओं में तथा प्रविचार और अप्रविचार रूप तीन गुप्तियों में विवेकवाला होता है, वह कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से स्वयं युक्त होता है और गुरु की कृपा से समिति और गुप्ति का स्वरूप जानकर दूसरे को उनके यथार्थस्वरूप तथा उनका पालन और फल का उपदेश करता है ॥५॥
- ईर्यासमित्याद्युपेतेन यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाह
समिति आदि से युक्त साधु को जो करना चाहिए सो बताते हैं सद्दाणि सोच्चा अदु भेरवाणि, अणासवे तेसु परिव्वज्जा । निद्दं च भिक्खू न पमायं कुज्जा, कहंकहं वा वितिगिच्छतिन्ने
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छाया - शब्दान् श्रुत्वाऽय भैरवान्, अनाश्रवस्तेषु परिव्रजेत् ।
ग्रन्थाध्ययनम्
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निद्रारा भिक्षुर्न प्रमादं कुर्य्यात्, कथं कथं वा विचिकित्सातीर्णः ॥
॥६॥
अन्वयार्थ - (सद्दाणि अदु भेरवाणि सोच्चा) मधुर या भयङ्कर शब्दों को सुनकर (तेसु अणासवे परिव्वज्जा) उनमें रागद्वेष रहित होकर साधु विचरे (भिक्खू निद्दं पमायं न कुज्जा) एवं उत्तम साधु निद्रा और प्रमाद न करे ( कहंकहं वा वितिगिच्छतिने) तथा किसी विषय में भ्रम होने पर गुरु की कृपा से उससे पार हो जाय ।
भावार्थ - ईर्य्यासमिति आदि से युक्त साधु मधुर या भयङ्कर शब्दों को सुनकर राग द्वेष न करे तथा वह निद्रारूप