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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते चतुर्दशमध्ययने गाथा २
ग्रन्थाध्ययनम् करे । तथा वह आचार्य की आज्ञा पालन करता हुआ विनय सीखे । एवं संयमपालन करने में निपुण पुरुष कभी भी प्रमाद न करे ।
टीका - ‘इह' प्रवचने ज्ञातसंसारस्वभावः सन् सम्यगुत्थानेनोत्थितो ग्रथ्यते आत्मा येन स ग्रन्थो-धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदादि 'विहाय' त्यक्त्वा प्रव्रजितः सन् सदुत्थानेनोत्थाय च ग्रहणरूपामासेवनारूपां च शिक्षा [च] कुर्वाणः-सम्यगासेवमानः सुष्ठु-शोभनं नवभिर्ब्रह्मचर्यगुप्तिभिर्गुप्तमाश्रित्य ब्रह्मचर्य 'वसेत्' तिष्ठेत्, यदिवा 'सुब्रह्मचर्यमिति संयमस्तद् आवसेत्-तं सम्यक् कुर्यात्, आचार्यान्तिके यावज्जीवं वसमानो यावदभ्युद्यतविहारं न प्रतिपद्यते तावदाचार्य-वचनस्यावपातो-निर्देशस्तत्कार्यवपातकारी-वचननिर्देशकारी सदाऽऽज्ञाविधायी, विनीयते-अपनीयते कर्म येन स विनयस्तं सुष्ठु शिक्षेद्-विदध्यात् ग्रहणासेवनाभ्यां विनयं सम्यक् परिपालयेदिति । तथा यः 'छेको' निपुणः स संयमानुष्ठाने सदाचार्योपदेशे वा विविधं प्रमादं न कुर्यात्, यथा हि आतुरः सम्यग्वैद्योपदेशं कुर्वन् श्लाघां लभते रोगोपशमं च एवं साधुरपि सावद्यग्रन्थपरिहारी पापकर्मभेषजस्थानभूतान्याचार्यवचनानि विदधदपरसाधुभ्यः साधुकारमशेषकर्मक्षयं चावापोतीति ॥१॥
टीकार्थ - इस प्रवचन में संसार के (असार) स्वभाव को जानता हुआ पुरुष आत्मकल्याण के लिए उद्यत होकर जिसके द्वारा आत्मा जाल में गूंथी जाती है, उस धन, धान्य, हिरण्य और द्विपद, चतुष्पद आदि का त्याग करे और दीक्षा लेकर आत्मकल्याण में तत्पर होकर ग्रहण रूप और आसेवनरूप शिक्षा का अच्छ हुआ नव गुप्तियों से गुप्त उत्तम ब्रह्मचर्य का पालन करे । अथवा संयम को सुब्रह्मचर्य कहते हैं, उसका वह अच्छी तरह पालन करे । वह जीवनभर गुरु के निकट निवास करता हुआ जब तक एकलविहारी होने की प्रतिमा न स्वीकार करे, तब तक गुरु की आज्ञा का सदा पालना करता रहे। जिससे कर्म हटाया जाता है, उसे विनय कहते हैं, उसको सदा सीखे और अच्छी तरह पालन करे । इस प्रकार जो पुरुष चतुर है, वह संयम पालन करने में और गुरु के उपदेश में कभी भी किसी प्रकार का प्रमाद न करे । जैसे रोगी पुरुष वैद्य के उपदेश को पालता हुआ प्रशंसा के योग्य होता है और रोग निवृत्ति को भी प्राप्त करता है, इसी तरह जो साधु सावध अनुष्ठानों का त्यागकर पापकर्म के क्षय के लिए औषधरूप गुरु के उपदेश वचनों का पालन करता है, वह दूसरे साधुओं से धन्यवाद का पात्र होता है और समस्त कर्मों के क्षयरूप मोक्ष को भी प्राप्त करता है ॥१॥
- यः पुनराचार्योपदेशमन्तरेण स्वच्छन्दतया गच्छान्निर्गत्य एकाकिविहारितां प्रतिपद्यते स च बहुदोषभाग् भवतीत्यस्यार्थस्य दृष्टान्तमाविर्भावयन्नाह -
- जो साधु आचार्य के उपदेश के बिना स्वच्छन्द होकर गच्छ से निकलकर अकेला विहार करता है, वह बहुत दोषों का भाजन होता है, इस विषय में दृष्टान्त बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - जहा दियापोतमपत्तजातं,सावासगा पविठं मन्नमाणं । तमचाइयं तरुणमपत्तजातं, ढंकाइ अव्वत्तगम हरेज्जा
॥२॥ छाया - यथा द्विजपोतमपत्रजातं, स्वावासकात् प्लवितुं मन्यमानम् ।
___तमशक्नुवन्तं तरुणमपत्रनातं, ढहादयोऽव्यक्तगर्म हरेयुः ॥ __ अन्वयार्थ - (जहा दियापोतमपत्तजातं) जैसे कोई पक्षी का बच्चा पूरे पक्ष आये बिना (सावासगा पविउं मन्नमाणं) अपने स्थान से उड़कर अन्यत्र जाने की इच्छा करता हुआ (अपत्तजातं तरुणमचाइयं) पक्ष के बिना उड़ने में समर्थ नहीं होता है (ढंकाइ अव्वत्तगर्म हरेज्जा) और उसे माँसाहारी ढङ्क आदि पक्षी फड़फड़ाते हुए देखकर हर लेते है और मार डालते हैं।
भावार्थ - जिसको अभी पूरे पक्ष नहीं आये है, ऐसा पक्षी का बच्चा जैसे उड़कर अपने घोसले से अलग जाना चाहता हुआ उड़ने में समर्थ नहीं होता है, किन्तु झूठ ही फड़-फड़ करता हुआ, वह ढंक आदि माँसाहारी पक्षियों से मार दिया जाता है, इसी तरह जो साधु आचार्य की आज्ञा बिना अकेला विचरता है, वह नष्ट हो जाता है ।
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