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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशः गाथा १३-१४
चत्तारि अगणीओ समारभित्ता, जहिं कूरकम्माऽ ते तत्थ चिट्ठतंऽभितप्पमाणा मच्छा व जीवंतुवजोतिपत्ता
छाया - चतसृष्वग्नीन् समारभ्य, यस्मिन् क्रूरकर्माणोऽभितापयन्ति बालम् । ते तत्र तिष्ठन्त्यभितप्यमाना मत्स्या हव जीवन्त उपज्योतिः प्राप्ताः ॥
भितविंति बालं ।
अन्वयार्थ - (जहिं) जिस नरक भूमि में ( कूरकम्मा) क्रूरकर्म करनेवाले परमाधार्मिक ( चत्तारि ) चारों दिशाओं में चार (अगणीओ) अग्नि ( समारभत्ता) जलाकर (बालं) अज्ञानी नारकी जीव को (अभितविंति ) तपाते हैं (ते) वे नारकी जीव, (जीवंतुवजोतिपत्ता मच्छा व ) ज्योति अर्थात् अग्नि के पास प्राप्त जीती हुई मछली की तरह ( अभितप्पमाणा) ताप पाते हुए (तत्थ) उसी जगह (चिट्ठतं) स्थित रहते हैं ।
भावार्थ - उन नरकों में परमाधार्मिक, चारों दिशाओं में चार अग्रिओं को जलाकर अज्ञानी जीवों को तपाते हैं। जैसे जीती हुई मच्छली आग में डाली, जाकर वहीं तपती हुई स्थित रहती है, इसी तरह वे बिचारे नारकी आग में जलते हुए वहीं स्थित रहते हैं ।
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नरकाधिकारः
टीका - चतसृष्वपि दिक्षु चतुरोऽग्नीन् 'समारभ्य' प्रज्वाल्य 'यत्र' यस्मिन्नरकावासे 'क्रूरकर्माणो' नरकपाला आभिमुख्येनात्यर्थं तापयन्ति - भटित्रवत्पचन्ति 'बालम्' अज्ञं नारकं पूर्वकृतदुश्चरितं, ते तु नारकजीवा एवम् 'अभितप्यमानाः' कदर्थ्यमानाः स्वकर्मनिगडितास्तत्रैव प्रभूतं कालं महादुःखाकुले नरके तिष्ठन्ति, दृष्टान्तमाह- यथा जीवन्तो 'मत्स्या' मीना 'उपज्योतिः' अग्नेः समीपे प्राप्ताः परवशत्वादन्यत्र गन्तुमसमर्थास्तत्रैव तिष्ठन्ति, एवं नारका अपि, मत्स्यानां तापासहिष्णुत्वादग्नावत्यन्तं दुःखमुत्पद्यत इत्यतस्तद्ग्रहणमिति ॥ १३॥ किञ्चान्यत् -
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टीकार्थ जिस नरक स्थान में क्रूर कर्म करनेवाले नरकपाल चार दिशाओं में चार अग्निओं को जलाकर पूर्व जन्म में पाप किये हुए अज्ञानी नारकी जीवों को भट्ठी की तरह अत्यन्त ताप देते हुए पकाते हैं, इस प्रकार पीड़ा पाते हुए वे नारकी जीव अपने कर्म पाश में बँधे हुए होने के कारण महादुःखद उसी नरक में चिर काल तक निवास करते हैं । इस विषय में दृष्टान्त देते हैं- जैसे जीती हुई मछली अग्नि के निकट प्राप्त होकर परवश होने के कारण अन्यत्र नहीं जा सकती किन्तु उसी जगह स्थित रहती है । इसी तरह नारकी जीव भी वहाँ स्थित रहते हैं । मछली ताप को नहीं सह सकती है, इसलिए आग में उसे महा दुःख होता है, इसीलिए यहाँ मछली का दृष्टान्त दिया ॥१३॥
संतच्छणं नाम महाहितावं, ते नारया जत्थ असाहुकम्मा । हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं, फलगं व तच्छंति कुहाडहत्था
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छाया - संतक्षणं नाम महाभितापं ते नारका यत्र असाधुकर्माणः । हस्तेश्च पादैश्च बद्ध्वा फलकमिव तक्ष्णुवन्ति कुठारहस्ताः ॥
अन्वयार्थ - ( महाहितावं) महान् ताप देनेवाला (संतच्छणं नाम) संतक्षण नामक एक नरक है ( जत्थ) जिसमें (असाहुकम्मा) बुरा कर्म करनेवाले (कुहाडहत्था ) तथा हाथ में कुठार लिये हुए (ते नारया) वे परमाधार्मिक (हत्थेहि पाएहि य बंधिऊणं) नारकी जीवों के हाथ पैर बाँधकर ( फल व तच्छंति) काठ की तरह काटते हैं ।
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भावार्थ संतक्षण नामक एक नरक है । वह प्राणियों को महान् ताप देनेवाला है । उस नरक में क्रूर कर्म करनेवाले परमाधार्मिक अपने हाथ में कुठार लिये रहते है । वे नारकि जीवों को हाथ-पैर बाँधकर काठ की तरह कुठार के द्वारा काटते हैं ।
टीका सम् - एकीभावेन तक्षणं सन्तक्षणं, नामशब्दः सम्भावनायां यदेतत्संतक्षणं तत्सर्वेषां प्राणिनां 'महाभितापं' महादुःखोत्पादकमित्येवं सम्भाव्यते, यद्येवं ततः किमित्याह - ते 'नारका' नरकपाला 'यत्र' नरकावासे स्वभवनादागताः ‘असाधुकर्माणः ' क्रूरकर्माणो निरनुकम्पाः 'कुठारहस्ताः' परशुपाणयस्तान्नारकानत्राणान् हस्तैः पादैश्च
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