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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा १२ नरकाधिकारः इति व्यपदिश्यते, तमेवम्भूतं महाभितापम् अन्धतमसं 'दुष्प्रतरं' दुरुत्तरं 'महान्तं' विशालं नरकं महापापोदयाद् व्रजन्ति, तत्र च नरके ऊर्ध्वमधस्तिर्यक सर्वतः 'समाहितः' सम्यगाहितो व्यवस्थापितोऽग्निज्वलतीति पठ्यते च 'समसिओ जत्थऽगणी झियाई' यत्र नरके सम्यगूध्वं श्रितः-समुच्छ्रितोऽग्निः प्रज्वलति तं तथाभूतं नरकं वराका व्रजन्ति इति॥११॥ किञ्चान्यत् - टीकार्थ- जिसमें सूर्य नहीं रहता ऐसा कुम्भिका के समान आकारवाला बहुत अन्धकार से युक्त एक असूर्य नामक नरक है । अथवा सभी नरकों को असूर्य कहते हैं। ऐसे महान् ताप से युक्त तथा घने अन्धकार से परिपूर्ण, दुःख से पार करने योग्य विशाल नरक में महान् पाप का उदय होने से पापी प्राणी जाते हैं। उस नरक में ऊपरनीचे तथा तिरछे सभी दिशाओं में रखी हुई आग जलती रहती है । "समूसिओ" ऐसा पाठ भी है अर्थात् जिस . नरक में बहुत ऊपर तक उठी हुई आग जलती रहती है, ऐसे नरक में बिचारे पापी प्राणी जाते है ॥१॥ . जंसी गुहाए जलणेऽतिउट्टे, अविजाणओ डज्झइ लुत्तपण्णो । सया य कलुणं पुण घम्मठाणं, गाढोवणीयं अतिदुक्खधम्म ॥१२॥ छाया - यस्मिन् गुहायां ज्वलनेऽतिवृत्तोऽविनानन् दह्यते, लुप्तप्रतः । सदा च करुणं पुनर्धर्मस्थानं गाढोपनीतमतिदुःखधर्मम् ॥ अन्वयार्थ - (जंसी) जिस नरक में (गुहाए जलणे) गुफा के आकार में स्थापित अग्नि में (अतिउट्टे) आवृत होकर अपने पाप को न जानता हुआ (लुत्तपण्णो) संज्ञाहीन प्राणी (डज्झइ) जलता रहता है । (सयाय) जो नरक सदा (कलुणं) करुणापायः है (घम्मट्ठाणं) तथा सम्पूर्ण ताप का स्थान है (गाढोवणीयं) जो पापी जीवों को बलात्कार से प्राप्त होता है (अतिदुक्खधम्म) एवं अत्यन्त दुःख देना जिसका स्वभाव है। भावार्थ - जिस नरक में गुफा के आकार में स्थापित की हुई आग में, पड़े हुए नारकी जीव, अपने पाप को विस्मृत और संज्ञाहीन होकर जलते हैं । नरकभूमि करुणाप्राय और ताप का स्थान है, वह अत्यन्त दुःख देनेवाली और पापकर्म से प्रास होती है। टीका - 'यस्मिन्' नरकेतिगतोऽसुमान् ‘गुहाया' मित्युष्ट्रिकाकृतौ नरके प्रवेशितो 'ज्वलने' अग्नौ 'अतिवृत्तः' अतिगतो वेदनाभिभूतत्वात्स्वकृतं दुश्चरितमजानन् 'लुप्तप्रज्ञः' अपगतावधिविवेको दन्दह्यते, तथा 'सदा' सर्वकालं पुनः करुणप्रायं कृत्स्नं वा 'धर्मस्थानम्' उष्णस्थानं तापस्थानमित्यर्थः, 'गाढं'ति अत्यर्थम् 'उपनीतं' ढौकितं दुष्कृतकर्मकारिणां यत् स्थानं तत्ते व्रजन्ति, पुनरपि तदेव विशिनष्टि-अतिदुःखरूपो धर्मः-स्वभावो यस्मिन्निति, इदमुक्तं भवतिअक्षिनिमेष-मात्रमपि कालं न तत्र दुःखस्य विश्राम इति, तदुक्तम्“अच्छिणिमीलणमेत्तं णन्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं । णिरए णेरइयाणं अहोणिसं पच्चमाणाण।।१।।" ॥१२॥ अपिच टीकार्थ - जिस नरक में गया हुआ प्राणी, गुहा अर्थात् ऊंट के समान आकारवाली नरकभूमि में प्रविष्ट होकर आग में जलता हुआ वेदना से पीड़ित होकर अपने पाप को नहीं जानता है तथा अवधि के विवेक से रहित होकर अत्यन्त जलता रहता है । वह नरक सब काल में करुणाप्रायः है अथवा वह समस्त गर्मी का स्थान है। वह नरक पापकर्म करनेवाले प्राणियों को प्राप्त होती हैं। ऐसे स्थान में पापी जीव जाते हैं। फिर भी उसी स्थान की विशेषता बतलाते हैं, उस नरक का स्वभाव अत्यन्त दुःख देने का है, आशय यह है कि- नेत्र का निमेष मात्र काल तक भी वहाँ दुःख से विश्राम नहीं मिलता है । जैसा कि कहा है- "अच्छि" इत्यादि । अथात् नेत्र के पलक मारने के काल मात्र भी नारकी जीवों को सुख नहीं होता है किन्तु निरन्तर नरक में पकते हुए उनको कष्ट ही भोगना पड़ता है ।।१२।। 1. जाज्वल० प्र०। 2. पच्यते प्र० । 3. अक्षिनिमीलनमात्रं नास्ति सुखं दुःखमेव प्रतिबद्धं निरये नैरयिकाणां अहर्निशं पच्यमानानाम् ।।१।। ३१०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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