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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पश्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा १०-११ नरकाधिकारः से चढ़े हुए परमाधार्मिक उन नारकी जीवों के गले में कीलें चुभोते हैं। वे नारकी जीव कल कल शब्द के साथ बहते हुए वैतरणी के जल से संज्ञाहीन होकर भी कण्ठवेध पाकर अत्यन्त स्मृति रहित हो जाते हैं। उन्हें अपने कर्तव्य का विवेक सर्वथा नहीं रहता है। तथा दूसरे नरकपाल, नारकी जीवों से क्रीड़ा करते हुए उन नष्ट संज्ञावाले बिचारे नारकी जीवों को दीर्घ शूल और त्रिशूल के द्वारा वेधकर नीचे पृथ्वी पर पटक देते हैं ॥९॥ केसिं च बंधित्तु गले सिलाओ, उदगंसि बोलंति महालयंसि । कलंबुयावालुय मुम्मुरे य, लोलंति पच्चंति अ तत्थ अन्ने ॥१०॥ छाया - केषां च बद्धवा गले शिलाः, उदके मजयन्ति महालये । कलम्बुकाबालुकायां मुमुर च लोलयन्ति पचन्ति च तत्राऽन्ये ॥ अन्वयार्थ - (केसिं च) किन्हीं नारकी जीवों के (गले) गले में (सिलाओ बंधित्तु) शिलायें बाँधकर (महालयंसि) अगाध (उदगंसि) जल में (बोलंति) डुबाते हैं । (अन्ने) तथा दूसरे परमाधार्मिक (कलंबुयावालुय मुम्मुरे य लोलंति पच्चंति) अति तप्त बालु में और मुर्मुर में इधर उधर फेरते हैं तथा पकाते हैं। भावार्थ - नरकपाल किन्हीं नारकी जीवों के गले में शिला बांधकर अगाध जल में डुबाते हैं और दूसरे नरकपाल अतितप्त बालुका में और मुर्मुराग्नि में उन नारकी जीवों को इधर उधर फेरते हैं और पकाते हैं । टीका - केषांचिन्नारकाणां परमाधार्मिका महतीं शिलां गले बद्ध्वा महत्युदके 'बोलंति'त्ति, निमज्जयन्ति, पुनस्ततः समाकृष्य वैतरणीनद्याः कलम्बुकावालुकायां मुर्मुराग्नौ च 'लोलयन्ति' अतितप्तवालुकायां चणकानिव समन्ततो घोलयन्ति, तथा अन्ये 'तत्र' नरकावासे स्वकर्मपाशावपाशितान्नरकान् सुण्ठके 'प्रोतकमांसपेशीवत् 'पचन्ति' भर्जयन्तीति ॥१०॥ तथा - टीकार्थ - परमाधार्मिक, किन्ही नारकी जीवों के गले में बड़ी-बड़ी शिलायें बाँधकर अगाध जल में डुबाते हैं पश्चात् फिर उन्हें वहाँ से खींचकर वैतरणी नदी के कलम्बु के फूल के समान अति तप्त लाल वालुका में तथा मुर्मुराग्नि में इधर-उधर इस प्रकार फिराते हैं, जैसे चने को वालु में डालकर इधर उधर फेरते हैं । तथा दूसरे परमाधार्मिक, अपने कर्मरूपी जाल में फंसे हुए उन नारकी जीवों को शूल में बेधकर पकाये जाते हुए मांस की तरह पकाते हैं ॥१०॥ 2आसूरियं नाम महाभितावं, अंधंतमं दुप्पतरं महंतं । उड्ढं अहेअंतिरियं दिसासु, समाहिओ जत्थऽगणी झियाई ॥११॥ छाया - असूर्य नाम महाभितापमन्धं तमं दुष्प्रतरं महान्तम् । ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्दिशासू समाहितो यत्राग्निः प्रज्वलति ॥ . अन्वयार्थ- (आसुरियं नाम) जिसमें सूर्य नहीं है (महाभितावं) और जो महान् ताप से युक्त है (अंधंतमं दुप्पतरं महतं) तथा जो भयंकर अन्धकार से युक्त और दुःख से पार करने योग्य एवं महान् है (जत्थ) तथा जिसमें (उड्ढ) ऊपर (अहेयं) नीचे (तिरिय) तथा तिरच्छे (दिसासु) दिशाओं में (समाहिओ अगणी झियाई) प्रज्वलित अग्नि जलती रहती है। भावार्थ - जिसमें सूर्य नहीं है तथा जो महान् तापवाला है, जो घना अन्धकार से पूर्ण दुःख से पार करने योग्य और महान है, जहाँ ऊपर-नीचे तथा तिरछे अर्थात् सर्व दिशाओं में प्रज्वलित आग जलती जाते हैं । टीका - न विद्यते सूर्यो यस्मिन् सः असूर्यो-नरको बहलान्धकारः कुम्भिकाकृतिः सर्व एव वा नरकावासोऽसूर्य 1. प्रोतमा प्र०। 2. असुरिय प्र० । ३०९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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