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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशके: गाथा ९
नरकाधिकारः भावार्थ - अस्तरे के समान तेज धारावाली वैतरणी नदी को शायद तुमने सुना होगा । वह नदी बड़ी दुर्गम है। जैसे बाण से (लकड़ी के अग्र भाग में तीखा खिल्ला लगाकर उसके द्वारा टोंच मारकर बैंल को चलाते है, वह बाण है)
और भाला से भेदकर प्रेरित किया हुआ मनुष्य, लाचार होकर किसी भयङ्कर नदी में कूद पड़ता है, इसी तरह सताये जाते हुए नारकी जीव घबड़ाकर उस नदी में कूद पड़ते है ।
टीका - यथा भगवतेदमाख्यातं यदि 'ते' त्वया श्रुता-श्रवणपथमुपागता 'वैतरणी' नाम क्षारोष्णरुधिराकारजलवाहिनी नदी, आभिमुख्येन दुर्गा अभिदुर्गा-दुःखोत्पादिका, तथा-निशितो यथा क्षुरस्तीक्ष्णो भवत्येवं तीक्ष्णानि-शरीरावयवानां कर्तकानि स्रोतांसि यस्याः सा तथा, ते च नारकास्तप्ताङ्गारसन्निभां भूमिं विहायोदकपिपासवोऽभितप्ताः सन्तस्तापापनोदायाभिषिषिक्षवो वा तां वैतरणीमभिदुर्गा तरन्ति, कथम्भूताः ? इषुणा-शरेण प्रतोदेनेव चोदिताः-प्रेरिताः शक्तिभिश्च हन्यमानास्तामेव भीमां वैतरणीं तरन्ति, तृतीयार्थे सप्तमी ॥८॥ किञ्च -
टीकार्थ - भगवान ने जिसका कथन किया है, उस वैतरणी नामक नदी को शायद तुमने सुना होगा । उस वैतरणी नदी में खारा, गर्म और रक्त के समान जल बहता रहता है। जैसे तेज अस्तरे की धारा बड़ी तेज होती है, उसी तरह उसकी तेज धारा है । उस धारा के लगने से नारकी जीवों के अङ्ग कट जाते हैं, इस कारण वह नदी बड़ी दुर्गम है । उसमें बहते हुए प्राणियों को वह बहुत दुःख उत्पन्न करती है । तप्त अंगार के समान अति उष्ण नरक भूमि को छोड़कर अति तप्त और प्यासे हुए नारकी जीव अपने ताप को मिटाने के लिए तथा जल में स्नान करने की इच्छा से अति दुर्गम उस वैतरणी नदी में कूदकर तैरते हैं। वे नारकी कैसे हैं ? मानो बाणों (प्रतोद) से प्रेरित किये हुए हैं अथवा भाला से खोदकर चलाये गये है, अतः वे ऐसी भयङ्कर वेतरणी नदी में तैरते हैं । यहाँ ततीया के अर्थ में सप्तमी हुई है ।।८।।
कीलेहिं विज्झंति असाहुकम्मा, नावं उविते सइविप्पहूणा । अन्ने तु सूलाहिं तिसूलियाहिं दीहाहिं विभ्रूण अहेकरंति
॥९॥ छाया - कीलेषु विध्यन्ति, असाधुकर्माणः नावमुपयतः स्मृतिविप्रहीनाः |
अन्ये तु शूलैत्रिशूलैर्दीधैर्विद्ववाऽधः कुर्वन्ति ॥ अन्वयार्थ - (नावं उविते) नाव पर आते हुए नारकी जीवों के (असाहुकम्मा) परमाधार्मिक (किलेहिं विज्झंति) कण्ठ में कील चुभोते हैं (सइविप्पहूणा) अतः वे नारकी जीव स्मृति रहित होकर किंकर्त्तव्यमूढ हो जाते हैं (अन्ने तु) तथा दूसरे नरकपाल (दीहार्हि) दीर्घ (सूलाहिं तिसूलियाहिं) शूल और त्रिशूल के द्वारा (विभ्रूण अहेकरंति) नारकी जीवों को वेधकर नीचे डाल देते हैं।
भावार्थ - वैतरणी नदी के दुःख से उद्विग्न नारकी जीव जब नाव पर चढ़ने के लिए आते हैं, तब उस नाव पर पहले से बैठे हुए परमाधार्मिक उन बिचारे नारकी जीवों के कण्ठ में कील चुभोते है, अतः वैतरणी के दुःख से जो पहले ही स्मृतिहीन हो चुके हैं, वे नारकी जीव इस दुःख से और अधिक स्मृतिहीन हो जाते हैं, वे उस समय अपने शरण का कोई मार्ग नहीं देख पाते हैं। कई नरकपाल अपने चित्त का विनोद करने के लिए नारकी जीवों को शूल और त्रिशूल से वेधकर नीचे पृथ्वी पर पटक देते हैं।
टीका - तांश्च नारकानत्यन्तक्षारोष्णेन दुर्गन्धेन वैतरणीजलेनाभितप्तानायसकीलाकुलां नावमुपगच्छतः पूर्वारूढा 'असाधुकर्माणः' परमाधार्मिकाः 'कीलेषु कण्ठेषु विध्यन्ति, ते च विध्यमानाः कलकलायमानेन सर्वस्रोतोऽनुयायिना वैतरणीजलेन नष्टसंज्ञा अपि सुतरां 'स्मृत्या विप्रहीणा' अपगतकर्तव्यविवेका भवन्ति, अन्ये पुनर्नरकपाला नारकैः क्रीडतस्तान्नष्टांस्त्रिशूलिकाभिः शूलाभिः 'दीर्घिकाभिः' आयताभिर्विद्ध्वा अधोभूमौ कुर्वन्तीति ॥९॥ अपि च
टीकार्थ - वैतरणी नदी के अत्यन्त खारे, गर्म तथा दुर्गन्ध जल से अति तप्त वे बिचारे नारकी जीव उस नदी में (परमाधार्मिकों के द्वारा चलाई जाती हुई) काँटेदार नावपर जब आने लगते है, तब उस नाव पर पहले 1. कर्त्तव्याकर्त्तव्य० प्र०।