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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ७-८ ते च भयोद्भ्रान्ता दिक्षु नष्टा यदनुभवन्ति तद्दर्शयितुमाह
इंगालरासिं जलियं सजोतिं तत्तोवमं भूमिमणुक्कमंता ।
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ते डज्झमाणा कलुणं थांति, अरहस्सरा तत्थ चिरद्वितीया
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और वे भय से भ्रांत, दिशाओं में भागनेवाले जो अनुभव करते हैं, वह दर्शाने के लिए कहते है
छाया - अङ्गारराशि ज्वलितं सज्योतिः तदुपमां भूमिमनुक्रामन्तः ।
ते दह्यमानाः करुणं स्तनन्ति अरहस्वरास्तत्र चिरस्थितिकाः ॥
भावार्थ - जैसे जलती हुई अङ्गार की राशि बहुत तप्त होती है, इसी तरह अत्यन्त तपी हुई नरक की भूमि में चलते हुए नरक के वे वहाँ चिर काल तक निवास करते हैं ।
अन्वयार्थ - ( जलियं) जलती हुई ( इगालरासिं) अङ्गार की राशि, (सजोतिं) तथा ज्योति सहित (तत्तोवमं) भूमि के सदृश (भूमिं ) भूमि पर (अणुक्कमंता) चलते हुए (डज्झमाणा) अत एव जलते हुए (ते) वे नारकी जीव (कलुणं) करुण (थति) शब्द करते हैं (अरहस्सरा) उनका शब्द प्रकट जानने में आता है ( तत्थ चिरद्वितीया) तथा वे चिरकाल तक नरक में निवास करते हैं ।
नरकाधिकारः
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तथा जैसे ज्योति सहित पृथिवी बहुत गर्म होती जीव जलते हुए बड़े जोर से करुण रुदन करते हैं,
टीका 'अङ्गारराशि' खदिराङ्गरपुञ्जं 'ज्वलितं' ज्वालाकुलं तथा सह ज्योतिषा- उद्योतेन वर्तत इति सज्योतिर्भूमि:, तेनोपमा यस्याः सा तदुपमा तामङ्गारसन्निभां भूमिमाक्रमन्तस्ते नारका दन्दह्यमानाः 'करुणं' दीनं 'स्तनन्ति' आक्रन्दन्ति, तत्र बादराग्नेरभावात्तदुपमां भूमिमित्युक्तम्, एतदपि दिग्दर्शनार्थमुक्तम्, अन्यथा नारकतापस्येहत्याग्निना नोपमा घटते, ते च नारका महानगरदाहाधिकेन तापेन दह्यमाना 'अरहस्वरा' प्रकटस्वरा महाशब्दाः सन्तः 'तत्र' तस्मिन्नरकावासे चिरं - प्रभूतं कालं स्थितिः - अवस्थानं येषां ते तथा, तथाहि - उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि जघन्यतो दशवर्षसहस्त्राणि तिष्ठन्तीति ॥७॥
अपि च- सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनं प्रतीदमाह
और भी सुधर्मा स्वामी जम्बू स्वामी से कहते हैं कि
जइ ते सुया वेयरणी भिदुग्गा, णिसिओ जहा खुर इव तिक्खसोया । तरंति ते वेयरणीं भिदुग्गां, उसुचोइया सत्तिसु हम्ममाणा
टीकार्थ जैसे जलती हुई खैर के अङ्गारों की राशि होती है तथा जैसे ज्योति के सहित पृथिवी होती है, उसी की उपमा नरक की पृथिवी की है। उस अङ्गार राशि के तुल्य नरक की पृथिवी पर चलते हुए और उसमें जलते हुए नारकी जीव करुण रोदन करते हैं। नरक में बादर अग्नि नहीं होती है इसलिए शास्त्रकार ने नरक की पृथिवी को बादर अग्नि के सदृश कहा है । यह उपमा भी दिग्दर्शन मात्र समझना चाहिए, क्योंकि नरक के ताप की उपमा यहाँ की इस अग्नि से नहीं दी जा सकती है। महान् नगर के दाह से भी अधिक ताप से जलते हुए वे नारकी जीव, महा शब्द करते हैं। वे नरक में बहुत काल तक निवास करते हैं, वे उत्कृष्ट तैंतीस सागरोपम कालतक तथा जघन्य दश हजार वर्ष तक नरक में निवास करते हैं ||७||
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॥८॥
छाया यदि ते श्रुता वैतरण्यभिदुर्गा निशितो यथा क्षुर हव तीक्ष्णस्रोताः । तरन्ति ते वैतरणीमभिदुर्गामिषुचोदिताः शक्तिसुहन्यमानाः ||
अन्वयार्थ - (खुर इव तिक्खसोया णिसिओ) तेज अस्तरे की तरह तेज धारावाली ( अभिदुग्गा) अति दुर्गम (वेयरणी) वैतरणी नदी को ( जइ ते सुया) शायद तुमने सुना होगा (ते) वे नारकी जीव (अभिदुग्गां वेयरणी) अति दुर्गम वैतरणी को (तरंति) इस प्रकार तैरते हैं (उसुचोइया) जैसे टोंच मारकर प्रेरित किया हुआ (सत्तिसु हम्ममाणा ) तथा भाला से भेदकर चलाया हुआ मनुष्य किसी विषम नदी में कूद पड़ता है ।
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