SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृतालेभाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा ६ नरकाधिकारः ___ मांस खाने, मद्य पीने और मैथुन करने में दोष नहीं है, क्योंकि ये जीवों के स्वभाव सिद्ध हैं, परन्तु इनसे निवृत्त होने का महान् फल है ॥१॥ इत्यादि तथा जो क्रूर सिंह और कृष्ण सर्प के समान स्वभाव से ही प्राणियों का घात करता है तथा जो कभी शान्त नहीं होता है अथवा जो पशुओं का वध और मत्स्य का वध करके अपनी जीविका करता है तथा जिसका सदा वध करने का परिणाम बना रहता है और जो कभी भी शान्त नहीं होता, वह जीव जिसमें अपने किये हुए कर्म का फल भोगने के लिए प्राणिओं का घात किया जाता है, उस घात स्थान यानी नरक में जाता है। वह कौन है ? वह अज्ञानी है, वह राग और द्वेष के उदय में वर्तमान है । वह मरण काल में नीचे अन्धकार में जाता है। वह अपने किये पाप के कारण नीचे शिर करके भयङ्कर यातना स्थान को प्राप्त होता है, वह नीचे शिर करके नरक में पड़ता है, यह अर्थ है ॥५॥ ॥६॥ - साम्प्रतं पुनरपि नरकान्तर्वर्तिनो नारका यदनुभवन्ति तद्दर्शयितुमाह - - अब नरक में रहनेवाले प्राणी जो दुःख अनुभव करते हैं, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - हण छिंदह भिंदह णं दहेति, सद्दे सुर्णिता परहम्मियाणं । ते नारगाओ भयभिन्नसन्ना, कंखंति कन्नाम दिसं वयामो! छाया - जहि छिन्धि मिन्धि, दह इति शब्दान् श्रुत्वा परमाथार्मिकाणाम् । ते नारकाः भयभित्रसज्ञाः काक्षन्ति का नाम दिशं व्रनामः ॥ अन्वयार्थ - (हण) मारो (छिंदह) छेदन करो (भिंदह) भेदन करो (दह) जलाओ (परहम्मियाणं) इस प्रकार परमाधार्मिकों का (सद्दे) शब्दों को (सुर्णिता) सुनकर (भयभिन्नसन्ना) भय से संज्ञाहीन (ते नारगाओ) वे नारकी जीव, (कंखंति) चाहते हैं कि- (कं नाम दिसं वयामो) हम किस दिशा में भाग जायें । भावार्थ - नारकि जीव, मारो, काटो, भेदन करो, जलाओ इत्यादि परमाधार्मिकों के शब्द सुनकर भय से संज्ञाहीन हो जाते हैं और वे चाहते हैं कि- हम किस दिशा में भाग जायें । टीका - तिर्यङ्मनुष्यभवात्सत्त्वा नरकेषूत्पन्ना अन्तर्मुहूर्तेन 'निनाण्डजसन्निभानि शरीराण्युत्पादयन्ति, पर्याप्तिभावमागताश्चातिभयानकान् शब्दान् परमाधार्मिकजनितान् शृण्वन्ति, तद्यथा- 'हत' मुद्रादिना 'छिन्त' खङ्गादिना 'भिन्त' शूलादिना 'दहत' मुर्मुरादिना, णमितिवाक्यालङ्कारे, तदेवम्भूतान् कर्णासुखान् शब्दान् भैरवान् श्रुत्वा ते तु नारका भयोद्घान्तलोचना भयेन-भीत्या भिन्ना-नष्टा संज्ञा-अन्तःकरणवृत्तिर्येषां ते तथा नष्टसंज्ञाश्च 'कां दिशं व्रजामः' कुत्र गतानामस्माकमेवम्भूतस्यास्य महाघोरारवदारुणस्य दुःखस्य त्राणं स्यादित्येतत्काङ्क्षन्तीति ।।६।। टीकार्थ - तिर्यंच और मनुष्यभव छोड़कर नरक में उत्पन्न प्राणी अन्तर्मुहूर्त तक अण्डे से निकले हुए रोम और पक्ष रहित पक्षी की तरह शरीर उत्पन्न करते हैं। पीछे पर्याप्ति भाव को प्राप्त कर, वे अति भयानक परमाधार्मिकों का शब्द सुनते हैं, जैसे कि- "इसे मुद्गर आदि से मारो" "इसे तलवार से छेदन करो" "इसे शूल आदि के द्वारा वेध करो" "इसे मुर्मुर आदि के द्वारा जलाओ" 'णं' शब्द वाक्यालङ्कार में आया है । इस प्रकार कानों को दुःख देनेवाले अति भयानक शब्दों को सुनकर वे नारकी, भय से चञ्चलनेत्र तथा नष्ट चित्तवृत्ति होकर यह चाहते हैं कि- हम किस दिशा को चले जायँ, अर्थात् कहाँ जाने से हम इस महाघोर दारुण दुःख से रक्षा पा सकेंगे ॥६॥ 1. निर्लनरोमाणोऽण्डजा इव । ३०६
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy