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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते पञ्चमाध्ययने प्रथमोद्देशकेः गाथा १५-१६ 'बद्ध्वा' संयम्य 'फलकमिव' काष्ठशकलमिव 'तक्ष्णुवन्ति' छिन्दन्तीत्यर्थः ॥ १४ ॥ अपि च - - टीकार्थ जो एक भाव से प्राणियों को काटता है, उसे 'संतक्षण' कहते हैं । नाम शब्द सम्भावना अर्थ में आया है । यह जो संतक्षण नरक है, वह सब प्राणियों को महान् दुःख उत्पन्न करता है, यह संभव है । यदि ऐसा है तो क्या ? उत्तर देते हुए शास्त्रकार कहते है कि- उस नरक में क्रूरकर्म करनेवाले दयारहित तथा हाथ में कुठार लिये हुए नरकपाल अपने स्थान से आकर रक्षक रहित उन नारकी जीवों को उनके हाथ, पैर बाँधकर काठ के समान कुठार के द्वारा छेदन करते हैं ||१४|| रुहिरे पुणो वच्चसमुस्सिअंगे, भिन्नुत्तमंगे वरिवत्तयंता । पयंति णं णेरइए फुरंते, सजीवमच्छे व अयोकवल्ले छाया - रुधिरे पुनः वर्चः समुच्छ्रिताङ्गान् भिलोत्तमाङ्गान् परिवर्त्तयन्तः । पचन्ति नैरयिकान् स्फुरतः सजीवमत्स्यानिवायसकवल्याम् ॥ नरकाधिकारः ।।१५।। अन्वयार्थ - (पुणो ) फिर नरकपाल (रुहिरे) नारकी जीवों के रक्त में (वच्चसंमुस्सिअंगे ) मल के द्वारा जिनका शरीर सूज गया है तथा ( भिन्नुत्तमंगे) जिनका शिर चूर्ण कर दिया गया है ( फुरंते) एवं जो पीड़ा के मारे छटपटा रहे है (णेरइए) ऐसे नारकी जीवों को (परित्तयंतो) नीचे ऊपर उलटते हुए (सजीवमच्छे व ) जीवित मछली की तरह (अयोकवल्ले) लोह की कड़ाही में (पयंति) पकाते हैं । भावार्थ - नरकपालं, नारकी जीवों का रक्त निकालकर उसे गर्म कड़ाह में डालकर उस रक्त में जीते हुए मछली की तरह दुःख से छटपटाते हुए नारकी जीवों को पकाते हैं। उन नारकी जीवों का शिर पहले नरकपालों के द्वारा चूर चूर कर दिया गया है तथा उनका शरीर मल के द्वारा सूजा हुआ है । टीका - ते परमाधार्मिकास्तान्नारकान्स्वकीये रुधिरे तप्तकवल्यां प्रक्षिप्ते पुनः पचन्ति वर्चः प्रधानानि समुच्छ्रितान्यन्त्राण्यङ्गानि वा येषां ते तथा तान्, भिन्नं चूर्णितम् उत्तमाङ्गं शिरो येषां ते तथा तानिति, कथं पचन्तीत्याह'परिवर्तयन्तः ' उत्तानानवाङ्मुखान् वा कुर्वन्तः णमिति वाक्यालङ्कारे तान् 'स्फुरत' इतश्चेतश्च विह्वलमात्मानं निक्षिपतः सजीवमत्स्यानिवायसकवल्यामिति ॥१५॥ तथा नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिज्जती तिव्वभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं - - टीकार्थ वे परमाधार्मिक उन नारकी जीवों को उनका रक्त गर्म कड़ाह में डालकर पकाते हैं। उन नारकी जीवों की अंतडी अथवा अङ्ग मल से सूजे हुए हैं। तथा उनका शिर चूर चूर कर दिया गया है । वे किस तरह पकाते हैं ? सो कहते है- जो नारकी उत्तान पड़े हैं, उनको अवाङ्मुख और जो अवाङ्मुख हैं, उनको उत्तान करते हुए पकाते हैं । "णं" शब्द वाक्यालंकार में आया है। इस प्रकार पकाये जाते हुए नारकी जीव विकल होकर इधर-उधर अपने शरीर को फेंकते रहते हैं और नरकपाल जीती हुई मछली की तरह उन्हे लोह की कड़ाही में पकाते हैं ||१५|| ॥१६॥ छाया - नो चैव ते तत्र मषीभवन्ति, न म्रियन्ते तीव्राभिवेदनया तमनुभागमनुवेदयन्तः दुःख्यन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ॥ अन्वयार्थ - (तत्थ) उस नरक में (ते) वे नारकी जीव (नो मसीभवंति ) जलकर भस्म नहीं हो जाते हैं (तिव्यभिवेयणाए) तथा नरक की तीव्र पीड़ा से (ण मिज्जती) मरते नहीं हैं । (तमणुभागमणुवेदयंता) किन्तु नरक की उस पीड़ा को भोगते हुए वे वहीं रहते हैं (इह दुक्कडेणं) और इस लोक में किये हुए पाप के कारण वे ( दुक्खी दुक्खति) वहाँ दुःख पाते हैं ।
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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