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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा २३ सर्वाध्ययनोपसंहारार्थमाह - अब शास्त्रकार समस्त अध्ययन को समाप्त करने के लिए कहते हैं आहत्तहीयं समुपेहमाणे सव्वेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं । णो जीवियं णो मरणाहिकंखी, परिव्वज्जा वलयाविमुक्के [मेहावी वलयविप्पमुक्के] छाया इति श्रीआहत्तहियं नाम त्रयोदशमध्ययनं समत्तं (गाथाग्रम् - ५९१) याथातथ्यं समुत्प्रेक्षमाणः सर्वेषु प्राणिषु निधाय दण्डम् | नो जीवितं नो मरणावकाङ्क्षी, परिव्रजेद् वलयाद् विमुक्त ॥ इति ब्रवीमि ॥ - श्रीयाथातथ्याध्ययनम् ॥२३॥ त्ति बेमि ॥ अन्वयार्थ - ( आहत्तहीयं समुपेहमाणे) साधु सत्य धर्म को देखता हुआ (सव्वेहिं पाणेहिं दंडं णिहाय ) सब प्राणियों को दण्ड देना छोड़कर ( णो जीवियं णो मरणाहिकंखी) जीवन और मरण की इच्छा न रखता हुआ (वलयाविमुक्के परिव्वज्जा) माया से मुक्त होकर विचरे । भावार्थ - साधु सच्चे धर्म को देखता हुआ सब प्राणियों को दण्ड देना छोड़कर, अपने जीवन और मरण की इच्छा से रहित होकर माया का त्यागकर विचरे । टीका - 'आहत्तहीय' मित्यादि, यथातथाभावो याथातथ्यं धर्ममार्गसमवसरणाख्याध्ययनत्रयोक्तार्थतत्त्वं सूत्रानुगतं सम्यक्त्वं चारित्रं वा तत् 'प्रेक्षमाणः' पर्यालोचयन् सूत्रार्थं सदनुष्ठानतोऽभ्यस्यन् 'सर्वेषु' स्थावरजङ्गमेषु सूक्ष्मबादरभेदभिन्नेषु पृथिवीकायादिषु दण्डयन्ते प्राणिनो येन स दण्डः - प्राणव्यपरोपणविधिस्तं 'निधाय' परित्यज्य, प्राणात् याथातथ्यं धर्मं नोल्लङ्घयेदिति । एतदेव दर्शयति- 'जीवितम् असंयमजीवितं दीर्घायुष्कं वा स्थावरजङ्गमजन्तुदण्डेन नाभिकाङ्क्षी स्या (क्षे ) त् परीषहपराजितो वेदनासमुद्घात (समव) हतो वा तद्वेदनाम (भि) सहमानो जलानलसंपातापादितजन्तूपमर्देन नापि मरणाभिकाङ्क्षी स्यात् । तदेवं याथातथ्यमुत्प्रेक्षमाणः सर्वेषु प्राणिषूपरतदण्डो जीवितमरणानपेक्षी संयमानुष्ठानं चरेद्-उद्युक्तविहारी भवेत् 'मेधावी' मर्यादाव्यवस्थितो विदितवेद्यो वा वलयेन - मायारूपेण मोहनीयकर्मणा वा विविधं प्रकर्षेण मुक्तो विप्रमुक्त इति । इति परिसमाप्त्यर्थे, ब्रवीमिति पूर्ववत् ॥ २३॥ समाप्तं च याथातथ्यं त्रयोदशमध्ययनमिति । - टीकार्थ साधु, धर्म, मार्ग और समवसरण नामक तीन अध्ययनों में कहे हुए तत्त्व को विचारकर अथवा सूत्र के अनुरूप सम्यक्त्व और चारित्र का विचारकर और उत्तम अनुष्ठान के द्वारा सूत्र का अभ्यास करता हुआ सूक्ष्म और बादर भेदवाले पृथिवीकाय आदि स्थावर और जङ्गम प्राणियों के प्राण का नाशरूप व्यापार न करे । तथा प्राण चले जाने पर भी सच्चे धर्म का उल्लङ्घन न करे । यही शास्त्रकार दिखाते हैं साधु असंयम के साथ जीने की इच्छा न करे तथा स्थावर और जङ्गम प्राणियों का नाश करके चिरकाल तक जीने की इच्छा न करे । एवं साधु परीषह से पीड़ित होकर अथवा दूसरे अनेक दुःखों से दुःखित होकर उस वेदना को न सह सकता हुआ जल में डूबकर आग में जलकर अथवा किसी हिंसक प्राणी के द्वारा अपना वध कराकर मरण की इच्छा न करे । इस प्रकार वह सत्य धर्म पर दृष्टि रखता हुआ सब प्राणियों को दण्ड देना छोड़कर तथा जीवन और मरण से निरपेक्ष होकर संयम का अनुष्ठान करे । शास्त्रोक्त मर्य्यादा के अनुसार विचरनेवाला जानने योग्य वस्तु को जाननेवाला साधु माया से अथवा मोहनीय कर्मों से मुक्त होकर विचरे । इति शब्द समाप्तयर्थक है, ब्रवीमि पूर्ववत् है ॥२३॥ यह याथातथ्य नामक तेरहवाँ अध्ययन समाप्त हुआ || ५७१
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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