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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा २१
श्रीयाथातथ्याध्ययनम् टीकार्थ - कुतीर्थिकों के उपदेश में जिनका हृदय वासित है तथा जो अपने दर्शन में आग्रह रखते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टियों की अन्तःकरणवृत्ति दुष्ट होती है, उसे अपनी बुद्धि के द्वारा समझे बिना जो साधु या श्रावक अपने धर्म को स्थापन करने के लिए कुतीर्थकों को तिरस्कार प्रधान वचन बोलता है, उसके वचन में वह कुतीर्थिक श्रद्धा नहीं करता है किन्तु उसे वह अति कटुक समझता हुआ क्रोधित होता है और वह उस साधु का विरूप भी कर सकता
जैसे पालक पुरोहित ने स्कन्दकाचार्य का विरूप किया था। तथा वह पुरुष अपने धर्म की निन्दा से कुपित होकर उस साधु के चिरकाल की आयु का भी विनाश कर सकता है । आशय यह है कि- पुरुष विशेष को जानकर धर्म का उपदेश करना चाहिए, जैसे कि- यह राजा आदि पुरुष कौन है ? तथा यह किस देवता को नमस्कार करनेवाला और किस दर्शन को माननेवाला है तथा इसको किसी मत का आग्रह है या नहीं हैं ? यह अच्छी तरह जानकर तब धर्म का उपदेश करना चाहिए । जो पुरुष इन बातों को जाने बिना धर्मोपदेश के द्वारा दूसरे को विरोधी वचन बोलता है, वह दूसरे के द्वारा मरण आदि अपकार को प्राप्त करता है, जिससे उसका यह लोक तथा परलोक बिगड़ता है, अतः अनुमान के द्वारा दूसरे का अभिप्राय जानकर दूसरे जीव को सच्चे धर्म की प्ररूपणा करनी चाहिए । अथवा अपने और दूसरे के उपकार के लिए जीव आदि पदार्थों को बताना चाहिए।॥२०॥
कम्मं च छंदं च विगिंच धीरे, विणइज्ज उ सव्वओ (हा) पावभावं । रूवेहिं लुप्पंति भयावहेहिं, विज्ज गहाया तसथावरेहिं
॥२१॥ छाया - कर्म च छन्दश्च विवेचयेद्धीरः, विनयेत्तु सर्वत आत्मभावम् ।
रूपेर्लुप्यन्ते भयावहेः विद्धान गृहीत्वा त्रसस्थावरेभ्यः ॥ अन्वयार्थ - (धीरे कम्मं च छंदं च विगिंच) धीर पुरुष सुननेवालों के कर्म और अभिप्राय को जानकर (सव्वओ आयभावं विणइज्ज) सुननेवालों के मिथ्यात्व आदि को सब तरह से दूर करे (भयावहेहिं रूवेहिं लुप्पंति) और उन्हें समझावे कि स्त्रियों का रूप भय देनेवाला है इसलिए उसमें लुब्ध जीव नाश को प्राप्त होते हैं (विज्जं गहाया तसथावरेहिं) इस प्रकार विद्वान् पुरुष दूसरे का अभिप्राय जानकर त्रस और स्थावरों का जिससे कल्याण हो ऐसे धर्म का उपदेश करे ।
भावार्थ - धीर पुरुष सुननेवाले लोगों का कर्म और अभिप्राय को जानकर धर्म का उपदेश करे और उपदेश के द्वारा उनके मिथ्यात्व को दूर करे । उन्हें समझावे कि- हे बान्धवों ! तुम स्त्री के रूप में मोहित होते हो परन्तु स्त्री का रूप भय देनेवाला है, उसमें लुब्ध मनुष्य नाश को प्राप्त होता है । इस प्रकार विद्वान् पुरुष सभा के अभिप्राय को जानकर त्रस और स्थावरों की जिससे भलाई हो ऐसे धर्म का उपदेश करे ।।
टीका - 'धीरः' अक्षोभ्यः सबुद्धयलकृतो वा देशनावसरे धर्मकथाश्रोतुः 'कर्म' अनुष्ठानं गुरुलघुकर्मभावं वा तथा 'छन्दः' अभिप्रायं सम्यग् 'विवेचयेत्' जानीयात्, ज्ञात्वा च पर्षदनुरूपामेव धर्मकथिको धर्मदेशनां कुर्यात् सर्वथा यथा तस्य श्रोतुर्जीवादिपदार्थावगमो भवति यथा च मनो न दूष्यते, अपि तु प्रसन्नतां व्रजति, एतदभिसंधिमानाहविशेषेण नयेद्-अपनयेत् पर्षदः 'पापभावम्' अशुद्धमन्तःकरणं, तुशब्दाद्विशिष्टगुणारोपणं च कुर्यात्, 'आयभावं' ति क्वचित्पाठः, तस्यायमर्थः- 'आत्मभावः' अनादिभवाभ्यस्तो मिथ्यात्वादिकस्तमपनयेत्, यदिवाऽऽत्मभावो विषयगृध्नुताऽतस्तमपनयेदिति । एतद्दर्शयति-'रूपैः' नयनमनोहारिभिः स्त्रीणामङ्गप्रत्यङ्गार्द्धकटाक्षनिरीक्षणादिभिरल्पसत्त्वा 'विलुप्यन्ते' सद्धर्माद्वाध्यन्ते, किंभूतै रूपैः ?- 'भयावहैः' भयमावहन्ति भयावहानि, इहैव तावद्रूपादिविषयासक्तस्य साधुजनजुगुप्सा नानाविधाश्च कर्णनासिकाविकर्तनादिका विडम्बनाः प्रादर्भवन्ति जन्मान्तरे च तिर्यङनरकादिके यातनास्थाने प्राणिनो विषयासक्ता वेदनामनुभवन्तीत्येवं 'विद्वान्' पण्डितो धर्मदेशनाभिज्ञो गृहीत्वा पराभिप्रायं-सम्यगवगम्य पर्षदं त्रसस्थावरेभ्यो हितं धर्ममाविर्भावयेत् ॥२१॥
टीकार्थ - विषय और कषायों से क्षोभ को प्राप्त न होनेवाला अथवा उत्तम बुद्धि से सुशोभित पुरुष धर्मोपदेश के समय धर्मकथा सुननेवाले पुरुष के कर्म यानी अनुष्ठान को अथवा यह पुरुष गुरुकर्मी है अथवा लघुकर्मी है एवं इसका अभिप्राय क्या है, इस बात को अच्छी तरह सोचकर जान लेवे और जानकर सभा के अनुरूप ही धर्म
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