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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा २० श्रीयाथातथ्याध्ययनम् सनिदाना वाक्प्रयोगाः तद्यथा - कुत्तीर्थिकाः सावद्यानुष्ठानरता निःशीला निर्व्रताः कुण्टलवेण्टलकारिण इत्येवंभूतान् परदोषोद्घट्टनया मर्मवेधिनः सुधीरधर्माणो वाक्कण्टकान् 'न सेवन्ते' न ब्रुवत इति ॥१९॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - दूसरे के उपदेश के बिना ही अपने आप समझकर अर्थात् संसार चार गतिवाला है और मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग उसके कारण हैं, तथा समस्त कर्मों का क्षयस्वरूप मोक्ष है और सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र उसके कारण है, इन बातों को अपने आप जानकर अथवा दूसरे आचार्य्य आदि से सुनकर साधु, मोक्षार्थी पुरुष को श्रुत और चारित्र रूप धर्म का भाषण करे । कैसे धर्म का भाषण करे सो कहते हैं - जो जगत् में उत्पन्न होते हैं, उन्हें प्रजा कहते है, वे स्थावर और जङ्गम रूप प्राणी है, उनको जिस सदुपदेश देने से हित यानी सदा उपकार हो ऐसा धर्म कहे । ग्रहण करने योग्य विषय को बताकर अब त्याग करने योग्य विषय को बताते हैं- जो वस्तु निन्दित है अर्थात् जो कर्मबन्ध के कारण है जैसे कि- मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग निन्दित हैं, इनका सेवन धीर पुरुष नहीं करते तथा जो धर्म कथा आदि व्यापार निदान के साथ किये जाते हैं अर्थात् मुझको इससे कुछ पूजा सत्कार आदि प्राप्त होगा इस आशा से किये जाते हैं वे चारित्र के विघ्नरूप है, इसलिए सुधीरधर्मा यानी महर्षि पुरुष उसका सेवन नहीं करते हैं । अथवा जो वचन निन्दामय है और निदान के सहित है उसे साधु न बोले, जैसे कि- कुतीर्थी, सावद्य अनुष्ठान में रत रहते हैं, वे शील रहित, व्रत रहित तथा कुण्टल वेण्टल करनेवाले हैं इत्यादि दूसरे के दोष को प्रकट करनेवाला तथा दूसरे के मर्म को पीड़ित करनेवाला कण्टक के समान वचन धीर पुरुष न बोले ||१९||
केसिंचि तक्काइ अबुज्झ भावं, खुद्दपि गच्छेज्ज असद्दहाणे । आउस्स कालाइयारं वघाए, लद्धाणुमाणे य परेसु अट्ठे
छाया - केषाशित्तर्कयाऽबुद्धवा भावं, क्षुद्रत्वमपि गच्छेदश्रद्दधानः | आयुषः कालातिचारं व्याघातं लब्धानुमानः परेष्वर्थान् ॥
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अन्वयार्थ - (केसिंचि भावं तक्काइ अबुज्झ ) अपनी बुद्धि के द्वारा दूसरे का अभिप्राय न समझकर साधु यदि उपदेश देवे तो (असद्दहाणे खुद्दपि गच्छेज्ज) वह उस उपदेश में श्रद्धा न करता हुआ क्रोध को प्राप्त होता है ( आउस्स कालाइयारं वघाए) और वह उपदेश देनेवाले की आयु को भी घटा सकता है अर्थात् उसे मार सकता है (लद्धाणुमाणे परेसु अट्ठे ) इसलिए साधु अनुमान से दूसरे का भाव जानकर पीछे धर्म का उपदेश
करे ।
भावार्थ - अपनी बुद्धि से दूसरे का अभिप्राय न समझकर धर्म का उपदेश करने से दूसरा पुरुष श्रद्धा न करता हुआ क्रोधित हो सकता है और क्रोध करके वह साधु का वध भी कर सकता है, इसलिए साधु अनुमान से दूसरे का अभिप्राय समझकर पीछे धर्म का उपदेश करे ।
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टीका - केषाञ्चिन्मिथ्यादृष्टीनां कुतीर्थिक भावितानां स्वदर्शनाऽऽग्रहिणां 'तर्कया' वितर्केण स्वमतिपर्यालोचनेन 'भावम्' अभिप्रायं दुष्टान्तः करणवृत्तित्वमबुद्धवा कश्चित्साधुः श्रावको वा स्वधर्मस्थापनेच्छया तीर्थिकतिरस्कारप्रायं वचो ब्रूयात् स च तीर्थिकस्तद्वचः 'अश्रद्दधानः ' अरोचयन्नप्रतिपद्यमानोऽतिकटुकं भावयन् 'क्षुद्रत्वमपि गच्छेद्' तद्विरूपमपि कुर्यात्, पालकपुरोहितवत् स्कन्दकाचार्यस्येति । क्षुद्रत्वगमनमेव दर्शयति-स निन्दावचनकुपितो वक्तुर्यदायुस्तस्यायुषो ‘व्याघातरूपं’ परिक्षेपस्वभावं कालातिचारं - दीर्घस्थितिकमप्यायुः संवर्तयेत्, एतदुक्तं भवति-धर्मदेशना हि पुरुषविशेषं ज्ञात्वा विधेया, तद्यथा-कोऽयं पुरुषो राजादिः ? कं च देवताविशेषं नतः ? कतरद्वा दर्शनमाश्रितोऽभिगृहीतोऽनभिगृहीतो वाऽयमित्येवं सम्यक् परिज्ञाय यथार्हं धर्मदेशना विधेया, यश्चैतदबुद्ध्वा किञ्चिद्धर्म देशनाद्वारेण परविरोधकृद्वचो ब्रूयात् स परस्मादैहिकामुष्मिकयोर्मरणादिकमपकारं प्राप्नुयादिति यत एवं ततो लब्धमनुमानं येन पराभिप्रायपरिज्ञाने स लब्धानुमान: 'परेषु' प्रतिपाद्येषु यथायोगं यथार्हप्रतिपत्त्या 'अर्थान्' सद्धर्मप्ररूपणादिकान् जीवादीन् वा स्वपरोपकाराय ब्रूयादिति ॥२०॥ अपि च