________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १९
श्रीयाथातथ्याध्ययनम् भवान्तरादुपजायते कर्मसहायस्यैवेति, उक्तं च“एकः प्रकुरुते कर्म, भुनक्येकश्च तत्फलम् । जायते म्रियते चैक, एको याति भवान्तरम् ।।१।।"
इत्यादि । तदेवं संसारे परमार्थतो न कश्चित्सहायो धर्ममेकं विहाय, एतद्विगणय्य मुनीनामयं मौनः-संयमस्तेन तत्प्रधानं वा ब्रूयादिति ॥१८॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - जो पुरुष महामुनि है और स्नान न करने से उसका शरीर मल से भरा हुआ है तथा जो रूखासूखा अन्नपानी आदि आहार खाकर अपना निर्वाह करता है, उसको यदि कर्म के उदय से संयम में अरति उत्पन्न हो तो वह साधु संसार के स्वभाव को जानकर तथा नरक और तिर्यश्च भव के दुःखों को सोचकर एवं संसारी प्राणियों की आयु थोड़ी है, यह विचारकर उस अरति को त्याग देवे और उसे त्यागकर एकान्त संयम युक्त वचन बोले यह आगे के साथ सम्बन्ध करना चाहिए । एवं उस साधु को अनादिकाल के अभ्यास से यदि असंयम में अर्थात् सावधानुष्ठान में रति उत्पन्न हो तो उसे भी दबा दे और उसे दबाकर संयम पालन में तत्पर हो जाय । फिर शास्त्रकार साधु का विशेषण बताते हैं - गच्छ में रहने के कारण बहुत से साधु जिसके संयम के सहायक हैं, ऐसा वह साधु हो अथवा अकेला विचरनेवाला वह प्रतिमा को प्राप्त अथवा जिनकल्पी आदि हो, उससे यदि कोई कुछ पूछे अथवा न पूछे तो वह संयम के साथ ही धर्मकथा के समय अथवा दूसरे समय में कुछ कहे आशय यह है कि- जिससे संयम में कोई बाधा न आये ऐसी धर्म सम्बन्धी ही बात कहे । क्या विचार कर साधु ऐसा करे सो शास्त्रकार बताते हैं- जीव अकेला ही अपने शुभाशुभ कर्म को लेकर परलोक में जाता है और वह उसी कर्म को लेकर दूसरे भव से आता भी है अत एव कहा है कि
प्राणी अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है, वह अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है तथा दूसरे भव में भी वह अकेला ही जाता है ||१||
अतः इस संसार में धर्म को छोड़कर वस्तुतः कोई दूसरी वस्तु सहायक नहीं है, यह सोचकर साधु संयम प्रधान वाक्य बोले ॥१८॥
सयं समेच्चा अदुवाऽवि सोच्चा, भासेज्ज धम्मं हिययं पयाणं । जे गरहिया सणियाणप्पओगा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा
॥१९॥ - छाया - स्वयं समेत्याऽथवाऽपि श्रुत्वा, भाषेत थम हितकं प्रजानाम् ।
ये गर्हिताः सनिदानप्रयोगाः न तान् सेवन्ते सुधीरधर्माणः ॥ अन्वयार्थ - (सयं समेच्चा) अपने आप धर्म को जानकर (अदुवाऽवि सोच्चा) अथवा दूसरे से सुनकर (पयाणं हिययं धर्म भासेज्ज) प्रजाओं के हितकारक धर्म का भाषण करे (जे गरहिया सणियाणप्पओगा) जो कार्य निन्दित है अथवा जो फल की प्राप्ति के लिए किया जाता है (सुधीरधम्मा ताणि ण सेवंति) धीर पुरुष उसका सेवन नहीं करते हैं ।
भावार्थ - धर्म को अपने आप जानकर अथवा दूसरे से सुनकर प्रजाओं के हित के लिए उपदेश करे तथा जो कार्य निन्दित है और जो पूजा, लाभ और सत्कार आदि के लिए किया जाता है, उसे धीर पुरुष नहीं करते हैं।
टीका - 'स्वयम्' आत्मना परोपदेशमन्तरेण 'समेत्य' ज्ञात्वा चतुर्गतिकं संसारं तत्कारणानि च मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगरूपाणि तथाऽशेषकर्मक्षयलक्षणं मोक्षं तत्कारणानि च सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्येतत्सर्वं स्वत एवावबुध्यान्यस्माद्वाऽऽचार्यादेः सकाशाच्छ्रुत्वाऽन्यस्मै मुमुक्षवे 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं भाषेत, किंभूतं ?-प्रजायन्त इति प्रजाः-स्थावरजङ्गमाः जन्तवस्तेभ्यो हितं सदुपदेशदानतः सदोपकारिणं धर्म ब्रूयादिति । उपादेयं प्रदर्श्य हेयं प्रदर्शयति- ये 'गर्हिता' जुगुप्सिता मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः कर्मबन्धहेतवः सह निदानेन वर्तन्त इति सनिदानाः प्रयुज्यन्त इति प्रयोगा-व्यापारा धर्मकथाप्रबन्धा वा ममास्मात्सकाशात्किञ्चित् पूजालाभसत्कारादिकं भविष्यतीत्येवंभूतनिदानाऽऽशंसारूपास्तांश्चारित्रविघ्नभूतान् महर्षयः सुधीरधर्माणो 'न सेवन्ते' नानुतिष्ठन्ति । यदिवा ये गर्हिताः
५६७