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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १८ श्रीयाथातथ्याध्ययनम् हो वही वस्तु लेना दूसरी वस्तु नहीं लेना जैसे किसी दातार के हाथ चावल से ही भरे हो तो चावल ही लेना परन्तु अन्य वस्तु नहीं लेनी । (२) जिस वस्तु से हाथ को लेप न लगता हो तो वह वस्तु लेनी जैसे सेंके हुए चणे आदि जिससे हाथ न भरते हो । ( ३) गृहस्थ ने अपने खाने के लिए जो आहार पात्र में ले रखा हो वही आहार लेना जैसे गृहस्थ ने जिस पात्र में खिचड़ी आदि पकाई है, उस पात्र में से अपने खाने के लिए थाली में जो खिचड़ी आदि ले रखी है, वही लेना अन्य नहीं । (४) जिस आहार में घृत या तैल आदि का अल्प लेप हो वही लेना अन्य नहीं । (५) परोसने के लिए जो आहार निकाला गया है वही लेना । (६) परोसने से बचा हुआ ही लेना । (७) फेंक देने के योग्य आहार लेना । इनमें पीछले दो आहार जिनकल्पी साधु को कल्पनीय और शेष अकल्पनीय हैं। अथवा जिसका जो अभिग्रह है, उसके लिए वह एषणा है और दूसरी अनेषणा है । इस प्रकार एषणा और अनेषणा का विज्ञान रखनेवाला साधु आहार आदि के लिए किसी जगह गया हुआ उसमें मूर्च्छित न होकर शुद्ध भिक्षा ग्रहण करे ॥ १७॥ तदेवं भिक्षोरनुकूलविषयोपलब्धिमतोऽप्यरक्तद्विष्टतया तथा दृष्टमप्यदृष्टं श्रुतमप्यश्रुतमित्येवं भावयुक्ततया च मृतकल्पदेहस्य सुदृष्टधर्मण एषणानेषणाभिज्ञस्यान्नपानादावमूर्छितस्य सतः क्वचिद् ग्रामनगरादौ प्रविष्टस्यासंयमे रतिररतिश्च संयमे कदाचित्प्रादुष्ष्यात् सा चापनेतव्येत्येतदाह जो साधु पूर्वोक्त प्रकार से अनुकूल विषय की प्राप्ति होने पर रागद्वेष नहीं करता है तथा देखे हुए विषय को न देखे हुए के समान तथा सुने हुए को न सुने हुए के समान समझता है तथा मुर्दे की तरह अपने शरीर का संस्कार नहीं करता है एवं धर्म का अच्छी तरह ज्ञान रखता है तथा एषणा और अनेषणा के विवेक से युक्त है और अन्न, पान आदि में मूर्च्छित नहीं होता है, उसको किसी ग्राम या नगर में प्रवेश करने पर यदि असंयम में रति (प्रेम) और संयम में अरति (अप्रेम) उत्पन्न हो तो वह उसे दूर करे यह शास्त्रकार बताते हैं. अरतिं रतिं च अभिभूय भिक्खू, बहुजणे वा तह एगचारी । एगंतमोणेण वियागरेज्जा, एगस्स जंतो गतिरागती य - छाया - अरति रतिशाभिभूय भिक्षुर्बहुजनो वा तथैकचारी । एकान्तमौनेन व्यागृणीयात् एकस्य जन्तोर्गतिरागतिश्च ॥ अन्वयार्थ - ( भिक्खू अरतिं रतिं च अभिभूय) साधु संयम में अरति और असंयम में रति का त्याग कर ( बहुजणे वा तह एगचारी ) बहुत लोगों के साथ रहता हो अथवा अकेला रहता हो ( एगंतमोणेण वियागरेज्जा) जो बात संयम से विरुद्ध न हो वही कहे (एगस्स जंतो गतिरागती य) क्योंकि प्राणी अकेला ही परलोक में जाता है और अकेला ही आता है । - 118211 भावार्थ - साधु असंयम में प्रेम और संयम में अप्रेम न करे, वह गच्छ में रहनेवाले बहुत साधुओं के साथ रहता हो अथवा अकेला रहता हो, जिससे संयम में बाधा न आये ऐसा वाक्य बोले और यह ध्यान में रखे कि प्राणी अकेला ही परलोक में जाता है और अकेला ही आता है । ५६६ टीका - महामुनेरप्यस्नानतया मलाविलस्यान्तप्रान्तवल्लचणकादिभोजिनः कदाचित्कर्मोदयादरतिः संयमे समुत्पद्येत तां चोत्पन्नामसौ भिक्षुः संसारस्वभावं परिगणय्य तिर्यङ्नारकादिदुःखं चोत्प्रेक्षमाणः स्वल्पं च संसारिणामायुरित्येवं विचिन्त्याभिभवेद्, अभिभूय चासावेकान्तमौनेन व्यागृणीयादित्युत्तरेण संबन्ध:, तथा रतिं च 'असंयमे' सावधानुष्ठाने अनादिभवाभ्यासादुत्पन्नामभिभवेदभिभूय च संयमोद्युक्तो भवेदिति । पुनः साधुमेव विशिनष्टि - बहवो जनाः- साधवो गच्छवासितया संयमसहाया यस्य स बहुजन:, तथैक एव चरति तच्छीलश्चैकचारी, स च प्रतिमाप्रतिपन्न एकल्लविहारी जिनकल्पादिर्वा स्यात्, स च बहुजन एकाकी वा केनचित्पृष्टोऽपृष्टो वैकान्तमौनेन संयमेन करणभूतेन व्यागृणीयात् धर्मकथावसरे, अन्यदा संयमाबाधया किञ्चिद्धर्मसंबद्धं ब्रूयात्, किं परिगणय्यैतत्कुर्यादित्याह यदिवा किमसौ ब्रूयादिति दर्शयति- 'एकस्य' असहायस्य जन्तोः शुभाशुभसहायस्य 'गतिः' गमनं परलोके भवति, तथा आगतिः- आगमनं
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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