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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १७ श्रीयाथातथ्याध्ययनम् टीकार्थ - प्रज्ञा आदि का मद संसार का कारण है, यह अच्छी तरह जानकर पुरुष मदों को अपने से अलग करे । जो पुरुष बुद्धि से सुशोभित यानी । नहीं करते हैं । वे कौन हैं ? श्रुत और चारित्र धर्म जिनमें अच्छी तरह प्रतिष्ठित है, वे पुरुष मद नहीं करते हैं। इस प्रकार सब मद के स्थानों का त्याग किये हुए और विशिष्ट तप से पाप को दूर किये हुए वे पुरुष उच्च गोत्र आदि से रहित होकर सबसे उत्तम मोक्षगति को प्राप्त करते हैं। च शब्द से वे पाँच महाविमान अथवा कल्पातीत में जाते हैं। अगोत्र उपलक्षण है इसलिए मोक्षगति में दूसरे भी नाम, कर्म और आयु आदि नहीं होते हैं, यह जानना चाहिए ॥१६॥ भिक्खू मुयच्चे तह दिट्ठधम्मे, गामं च णगरं च अणुप्पविस्सा । से एसणं जाणमणेसणं च, अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे ॥१७॥ छाया - भिक्षुर्मुदर्च स्तथा दृष्टथर्मा, ग्रामच नगरचानुप्रविश्य । स एषणां जानननेषणाश, भन्नस्य पानस्याननुगृद्धः ॥ अन्वयार्थ - (मुयच्चे तह दिट्ठधम्मे भिक्खू) उत्तम लेश्यावाला तथा धर्म को देखा हुआ साधु (गामं च णगरं च अणुपविस्सा) भिक्षा के लिए ग्राम में और नगर में प्रवेश करके (से एसणं जाणं अणेसणं च) वह एषणा को तथा अनेषणा को जानता हुआ (अन्नस्स पाणस्स अणाणुगिद्धे) अन्न और पान में गृद्ध न होता हुआ शुद्ध आहार ग्रहण करे । भावार्थ - उत्तम लेश्यावाला तथा धर्म को देखा हुआ साध भिक्षा के लिए ग्राम या नगर में प्रवेश करके एषणा और अनेषणा का विचार रखकर अन्न और पान में गृद्धि रहित होकर शुद्ध भिक्षा लेवे । टीका - स एवं मदस्थानरहितो भिक्षणशीलो भिक्षुः, तं विशिनष्टि-मृतेव स्नानविलेपनादिसंस्काराभावाद - तनुः शरीरं यस्य स मृतार्चः, यदिवा मोदनं मुत् तद्भूता शोभनाऽर्चा-पमादिका लेश्या यस्य स भवति मुदर्चःप्रशस्तलेश्यः, तथा दृष्टः-अवगतो यथावस्थितो धर्म:-श्रुतचारित्राख्यो येन स तथा, स चैवंभूतः क्वचिदवसरे ग्राम नगरमन्यद्वा मडम्बादिकमनुप्रविश्य भिक्षार्थमसावुत्तमधृतिसंहननोपपन्नः सन्नेषणां-गवेषणग्रहणैषणादिकां 'जानन्' सम्यगवगच्छन्ननेषणां च-उदमदोषादिकां तत्परिहारं विपाकं च सम्यगवगच्छन अन्नस्य पानस्य वा 'अननगद्धः' अनध्युपपन्नः सम्यग्विहरेत्, तथाहि-स्थविरकल्पिका द्विचत्वारिंशद्दोषरहितां भिक्षां गृह्णीयुः, जिनकल्पिकानां तु पञ्चस्वभिग्रहो द्वयोर्ग्रहः, ताश्चेमाः“संसठ्ठमसंसठ्ठा उद्धड तह होति अप्पलेवा य । उग्गहिया पनगहिया उज्झियधम्मा य सत्तमिया ||१||" अथवा यो यस्याभिग्रहः सा तस्यैषणा अपरा त्वनेषणेत्येवमेषणानेषणाभिज्ञः क्वचित्प्रविष्टः सन्नाहारादावमूर्छितः सम्यक् शुद्धां भिक्षां गृह्णीयादिति ।।१७।। टीकार्थ - पूर्वोक्त प्रकार से मद स्थानों से रहित भिक्षा से शरीर का निर्वाह करनेवाला साधु होता है। उसका विशेषण बताते हैं - जो मरे हए की तरह स्नान और विलेपन आदि शरीर का संस्कार न कहते हैं अथवा सुन्दर अर्चा यानी पद्मादि लेश्या जिसकी है, उसे मुदर्च कहते हैं अर्थात् साधु मृत शरीर की तरह अपने शरीर का स्नान, विलेपन आदि संस्कार नहीं करता अथवा वह प्रशस्त लेश्यावाला होता है तथा श्रुत और चारित्र रूपी धर्म को वह ठीक-ठीक जानता है, वह किसी समय भिक्षा के लिए ग्राम, नगर और मड़म्ब आदि में प्रवेश करके उत्तम धृति और संहनन से युक्त होकर गवेषणा और ग्रहणैषणा आदि को अच्छी तरह जानता हुआ तथा उद्गम आदि दोष और उनके त्याग तथा ग्रहण का फल जानता हुआ अन्न और पान में गृद्धि रहित होकर शुद्ध आहार ग्रहण करे । स्थविरकल्पी साधु बयालीस दोषों से रहित भिक्षा ग्रहण करे और जिनकल्पी साधु पाँच का अभिग्रह और दो को ग्रहण करे । वह इस प्रकार समझना चाहिए - (१) जिस वस्तु के लेप से हाथ भरा हुआ 1. संसृष्टाऽसंसृष्टा उद्धृता तथा भवस्त्यल्पलेपा च । उद्गृहीता प्रगृहीता उज्झितधर्मा च सप्तमिका ।।१।। ५६५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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