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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १६ श्रीयाथातथ्याध्ययनम् आजीवगं चेव) तथा चौथे आजीविका के मद को (णिन्नामए) त्याग देवे ( से पंडिए से उत्तमपोग्गले) जो ऐसा करता है, वही पण्डित है और वही सब से प्रधान है । भावार्थ - साधु, बुद्धिमद, तपोमद, गोत्रमद और आजीविका का मद न करे । जो ऐसा मद नहीं करता है, वही पण्डित है तथा वही सब से श्रेष्ठ है । टीका - प्रज्ञया - तीक्ष्णबुद्धया मदः प्रज्ञामदस्तं च तपोमदं च निश्चयेन नामयेन्निर्नामयेद् अपनयेद्, अहमेव यथाविधशास्त्रार्थस्य वेत्ता तथाऽहमेव विकृष्टतपोविधायी नापि च तपसो ग्लानिमुपगच्छामीत्येवंरूपं मदं न कुर्यात्, तथा उच्चैर्गोत्रे इक्ष्वाकुवंशहरिवंशादिके संभूतोऽहमित्येवमात्मकं गोत्रमदं च नामयेदिति । आ - समन्ताज्जीवन्त्यनेनेत्याजीव:-अर्थनिचयस्तं गच्छति - आश्रयत्यसावाजीवगः - अर्थमदस्तं च चतुर्थं नामयेत्, चशब्दाच्छेषानपि मदान्नामयेत्, तन्नामनाच्चासौ 'पण्डितः ' तत्त्ववेत्ता भवति, तथाऽसावेव समस्तमदापनोदक उत्तमः पुद्गल - आत्मा भवति, प्रधानवाची वा पुद्गलशब्दः, ततश्चायमर्थः - उत्तमोत्तमो महतोऽपि महीयान् भवतीत्यर्थः ||१५|| टीकार्थ बुद्धि की तीक्ष्णता के मद को प्रज्ञामद कहते हैं, उसे साधु न करे तथा तप के मद को भी साधु निश्चय हटा देवे । अर्थात् "मैं ही शास्त्र के यथार्थ अर्थ को जानता हूँ तथा मैं ही उत्कृष्ट तपस्या करनेवाला हूँ, एवं मैं ही तप से ग्लानि को प्राप्त नहीं होता।" इस प्रकार साधु को मद न करना चाहिए। तथा "मैं इक्ष्वाकु और हरिवंश आदि उच्च गोत्र में उत्पन्न हुआ हूँ ।" इस प्रकार गोत्र मद भी न करे । जिसके द्वारा प्राणी जीते हैं, उसे 'आजीव' कहते हैं । वह अर्थ समूह है, उसका मद भी साधु न करे । च शब्द से शेष मदों का भी साधु त्याग करे । मदों के त्याग करने से ही पुरुष पण्डित यानी तत्त्वज्ञानी होता है, वही उत्तम आत्मावाला है। । यहाँ पुद्गल शब्द प्रधान अर्थ में आया है इसलिए इसका अर्थ यह है कि वही पुरुष उत्तम से भी उत्तम यानी बड़े से भी बड़ा होता है ||१५|| साम्प्रतं मदस्थानानामकरणीयत्वमुपदश्यपसंजिहीर्षुराह - साधु को किसी प्रकार का भी मद नहीं करना चाहिए यह दिखाकर अब शास्त्रकार इस विषय को समाप्त करने के लिए कहते हैं - एयाइं मयाई विगिंच धीरा, ण ताणि सेवंति सुधीरधम्मा । ते सव्वगोत्तावगया महेसी, उच्च अगोत्तं च गतिं वयंति छाया - एतान् मदान् पृथक्कुर्युर्धीराः न तान् सेवन्ते सुधीरधर्माणः । ते सर्वगोत्रापगता महर्षिण, उच्चामगोत्राञ्च गतिं व्रजन्ति ॥ ।।१६।। अन्वयार्थ - (धीरा एयाई मयाई विर्गिच ) धीर पुरुष इन मद के स्थानों को अलग करे । (सुधीरधम्मा ण ताणि सेवंति) ज्ञान, दर्शन और चारित्र धर्म से युक्त पुरुष इन मदस्थानों का सेवन नहीं करते हैं (ते सव्वगोत्तावगया महेसी) वे सब गोत्रों से छुटे हुए महर्षि जीव (उच्चं अगोत्तं च गतिं वयंति) सबसे उत्तम मोक्ष गति को प्राप्त करते हैं । भावार्थ - धीर पुरुष पूर्वोक्त मदस्थानों को अलग करे क्योंकि ज्ञान, दर्शन और चारित्रसम्पन्न पुरुष गोत्रादि का मद नहीं करते हैं, अतः वे सब प्रकार के गोत्रों से रहित महर्षि होकर सबसे उत्तम मोक्षगति को प्राप्त करते हैं । टीका 'एतानि' प्रज्ञादीनि मदस्थानानि संसारकारणत्वेन सम्यक् परिज्ञाय 'विगिंच'त्ति पृथक्कुर्यादात्मनोऽपनयेदितियावत्, धीः-बुद्धिस्तया राजन्त इति धीरा - विदितवेद्या नैतानि जात्यादीनि मदस्थानानि सेवन्ति - अनुतिष्ठन्ति, के एते ?-ये सुधीरः- सुप्रतिष्ठितो धर्मः - श्रुतचारित्राख्यो येषां ते सुधीरधर्माणः, ते चैवंभूताः परित्यक्तसर्वमदस्थाना महर्षयस्तपोविशेषशोषितकल्मषाः सर्वस्मादुच्चैर्गोत्रादेरपगता: गोत्रापगताः सन्त उच्चां मोक्षाख्यां सर्वोत्तमां वा गतिं व्रजन्ति-गच्छन्ति, चशब्दात्पञ्चमहाविमानेषु कल्पातीतेषु वा व्रजन्ति, अगोत्रोपलक्षणाच्चान्यदपि नामकर्मायुष्कादिकं तत्र न विद्यत इति द्रष्टव्यम् ||१६|| किञ्च -
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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