________________
श्रीयाथातथ्याध्ययनम्
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १४
प्रियं वदितुं शीलमस्येत्यसौ सुसाधुवादी, क्षीरमध्वाश्रववादीत्यर्थः तथा प्रतिभा प्रतिभानम् - औत्पत्तिक्यादिबुद्धिगुणसमन्वितत्वेनोत्पन्नप्रतिभत्वं तत्प्रतिभानं विद्यते यस्यासौ प्रतिभानवान् - अपरेणाक्षिप्तस्तदनन्तरमेवोत्तरदानसमर्थः यदिवा धर्मकथावसरे कोऽयं पुरुषः कं च देवताविशेषं प्रणतः कतरद्वा दर्शनमाश्रित इत्येवमासन्नप्रतिभतया ( वेत्य) यथायोगमाचष्टे, तथा 'विशारदः' अर्थग्रहणसमर्थो बहुप्रकारार्थकथनसमर्थो वा, चशब्दाच्च श्रोत्रभिप्रायज्ञः, तथा आगाढा - अवगाढा परमार्थपर्यवसिता तत्त्वनिष्ठा प्रज्ञा-बुद्धिर्यस्यासावागाढप्रज्ञः, तथा सुष्ठु विविधं भावितो -धर्मवासनया वासित आत्मा यस्यासौ सुविभावितात्मा, तदेवमेभिः सत्यभाषादिभिर्गुणैः शोभनः साधुर्भवति, यश्चैभिरेव निर्जराहेतु- भूतैरपि मदं कुर्यात्, तद्यथा - अहमेव भाषाविधिज्ञस्तथा साधुवाद्यहमेव च न मत्तुल्यः प्रतिभानवानस्ति नापि च मत्समानो ऽलौकिकः लोकोत्तरशास्त्रार्थविशारदोऽवगाढप्रज्ञः सुभावितात्मेति च एवमात्मोत्कर्षवानन्यं जनं स्वकीयया प्रज्ञया 'परिभवेत्' अवमन्येत, तथाहि - किमनेन वाक्कुण्ठेन दुर्दुरूढेन कुण्डिकाकार्पासकल्पेन खसूचिना कार्यमस्ति ? क्वचित्सभायां धर्मकथावसरे वेति, एवमात्मोत्कर्षवान् भवति, तथा चोक्तम्
“अन्यैः स्वेच्छारचितानर्थविशेषान् श्रमेण विज्ञाय । कृत्स्नं वाङ्मयमित इति खादन्यङ्गानि दर्पण ||9||" इत्यादि ॥१३॥
टीकार्थ भाषा के गुण और दोषों को जानने के कारण जो पुरुष अच्छी भाषा से युक्त है तथा सुन्दर हितकारक परिमित और मिष्ट भाषण करता है अर्थात् दूध और मधु की तरह मिष्ट बोलता है तथा औत्पातिकी आदि बुद्धि से जो युक्त है अर्थात् जो दूसरे से किये हुए आक्षेप का झटपट उत्तर देता है अथवा जो धर्मकथा कहने के समय " यह पुरुष कौन है ? यह किस देवता का उपासक है और किस दर्शन को माननेवाला है ।" इत्यादि बातों को अपनी चमत्कारवाली बुद्धि से जानकर यथायोग्य उपदेश करता है तथा जो पदार्थों को समझने में समर्थ है अथवा जो बहुत प्रकार से शास्त्र की व्याख्या करने में प्रवीण है और च शब्द से जो श्रोता के अभिप्राय को जानने में निपुण हैं एवं सत्य तत्त्व में जिसकी बुद्धि गड़ी हुई है तथा धर्म की वासना से जिसका हृदय वासित है, वह पुरुष इन गुणों के कारण उत्तम साधु है । परन्तु जो पुरुष निर्जरा के कारणरूप इन्हीं गुणों के कारण अभिमान करता है, जैसे कि- "मैं ही भाषा की विधि को जानता हूँ तथा मैं ही अच्छा वक्ता हूँ एवं मेरे समान कोई प्रतिभावाला नहीं है तथा मेरे समान लोकोत्तर शास्त्र के अर्थ करने में कोई प्रवीण नहीं है तथा मेरी ही बुद्धि सत्य तत्त्व में प्रविष्ट है और मेरे समान किसी का भी मन धर्म की वासना से वासित नहीं है ।" इस प्रकार अभिमान करता हुआ जो अपनी बुद्धि के मद से दूसरे का अपमान करता है, जैसे कि वह समझता है कि- किसी सभा में अथवा धर्मकथा के समय इस कुण्ठितवाणी वाले दुर्दुरूट (मूर्ख) घड़े में भरे हुए कपास के समान सार रहित तथा आकाश को देखनेवाले पुरुष की क्या आवश्यकता है । इस प्रकार वह अपने को श्रेष्ठ मानता है अत एव कहा है कि
-
दूसरों के द्वारा इच्छानुसार बनाये हुए थोड़े विषयों को परिश्रम से जानकर अभिमानी पुरुष समझता है कि सब शास्त्र इतना ही है और अभिमान से दूसरे के अङ्गों को खाता है || १३ ||
साम्प्रतमेतद्दोषाभिधित्सयाऽऽह -
अब शास्त्रकार पूर्वोक्त दोष का फल बताते हैं
एवं ण से होइ समाहिपत्ते, जे पन्नवं भिक्खू विउक्कसेज्जा । अहवाऽवि जे लाभमयावलित्ते, अन्नं जणं खिंसति बालपन्ने
५६२
छाया एवं न सभवति समाधिप्राप्तः, यः प्रज्ञावान् भिक्षुर्व्युत्कर्षेत् । अथवाऽपि यो लाभमदावलिप्तः अन्यं जनं निन्दति बालप्रज्ञः ॥
ww
118811