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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १३ छाया निष्किशनो भिक्षुः सुरुक्षजीवी यो गौरवो भवति श्लोककामी । आजीवमेतत्त्वबुध्यमानः पुनः पुनो विपर्यासमुपैति ॥ श्रीयाथातथ्याध्ययनम् अन्वयार्थ - (जे भिक्खू णिक्किंचणे) जो निष्किचन यानी पैसा आदि नहीं रखता है और भीख से पेट भरता है (सुलूहजीवी) जो सूखा आहार खाकर जीता है (जे गारवं सलोगगामी होइ) परन्तु वह यदि अभिमान करता है अथवा अपनी स्तुति की इच्छा रखता है ( आजीव- मेयं तु अबुज्झमाणो ) तो उसके ये गुण उसकी जीविका के साधन हैं और वह अज्ञानी है ( पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति ) वह बार-बार संसार में जन्ममरण आदि दुःखों को भोगता है । - भावार्थ जो पुरुष द्रव्य आदि न रखता हुआ भिक्षा से पेट भरता है और रूखा-सूखा आहार खाकर जीता है परन्तु वह यदि अभिमान करता है और अपनी स्तुति की इच्छा करता है तो उसके ये पूर्वोक्त गुण उसकी जीविका के साधन है और वह अज्ञानी बार-बार जन्म, जरा और मरण आदि दुःखों को भोगता है । टीका - बाह्येनार्थेन निष्किञ्चनोऽपि भिक्षणशीलो भिक्षुः- परदत्तभोजी तथा सुष्ठु रूक्षम् - अन्तप्रान्तं वल्लचणकादि तेन जीवितुं - प्राणधारणं कर्तुं शीलमस्य स सुरूक्षजीवी, एवंभूतोऽपि यः कश्चिद्गौरवप्रियो भवति तथा 'श्लोककामी' आत्मश्लाघाभिलाषी भवति, स चैवंभूतः परमार्थमबुध्यमान एतदेवाकिञ्चनत्वं सुरूक्षजीवित्वं वाऽऽत्मश्लाघातत्परतया आजीवम्-आजीविकामात्मवर्तनोपायं कुर्वाणः पुनः पुनः संसारकान्तारे विपर्यासं-जातिजरामरणरोगशोकोपद्रवमुपैतिगच्छति, तदुत्तरणायाभ्युद्यतो वा तत्रैव निमज्जतीत्ययं विपर्यास इति ॥ १२॥ टीकार्थ जो पुरुष बाह्य पदार्थ कुछ भी नहीं रखता है और भिक्षा से उदर पोषण करता है, वह दूसरे का दिया हुआ आहार खाता है तथा रूखा-सूखा चना आदि तथा अन्तप्रान्त आहार खाकर प्राणधारण करता है, वह यदि अभिमान करता है तथा अपनी स्तुति की इच्छा करता है, तो वह परमार्थ को नहीं समझता है । क्योंकिअपनी स्तुति की इच्छा करने के कारण यही उसका निष्किञ्चन होना और रूखा-सूखा आहार खाकर रहना उसकी जीविका के साधन हो जाते हैं, इसलिए वह पुरुष इस संसाररूपी गहन वन में बार-बार जन्म, जरा, मरण, रोग और शोक आदि उपद्रवों को प्राप्त करता है । वह संसार को पार करने के लिए तत्पर होकर भी उसी में डूब जाता है, यह उल्टी बात होती है ॥ १२ ॥ - यस्मादमी दोषाः समाधिमाख्यातमसेवमानानामाचार्यपरिभाषिणां वा तस्मादमीभिः शिष्यगुणैर्भाव्यमित्याह जिस कारण से उपर्युक्त दोष, समाधि में कहे हुए को नहीं सेवनेवाले अथवा आचार्य के सामने बोलने वाले के होते हैं, इसलिए नीचे कहे हुए गुणों से युक्त शिष्य को होना चाहिए, वे गुण कहते है जे भासवं भिक्खू सुसाहुवादी, पडिहाणवं होइ विसारए य । आगाढपण्णे सुविभावियप्पा, अन्नं जणं पन्नया परिहवेज्जा छाया - यो भाषावान् भिक्षुः सुसाधुवादी, प्रतिभानवान् भवति विशारदश्च । आगाढप्रज्ञः सुविभावितात्माऽन्यंजनं प्रज्ञयाऽभिभवेत् ॥ अन्वयार्थ - (जे भिक्खू भासवं सुसाहुवादी) जो साधु अच्छी तरह भाषा को जाननेवाला और मधुरभाषी है ( पडिहाणवं विसारए य होइ ) तथा अच्छी प्रतिभावाला और विशारद यानी बहुत प्रकार का अर्थ कहने में समर्थ है (आगाढपण्णे) तथा सच्चे तत्त्व में जिसकी बुद्धि प्रवेश की हुई है (सुविभावियप्पा) एवं धर्म की वासना से जिसका हृदय वासित है, वही साधु है । परन्तु जो (अन्नं जणं पन्नया परिहवेज्जा) इन्ही गुणों का अभिमान रखकर दूसरे का तिरस्कार करता है, वह साधु नहीं है । ।।१३।। - भावार्थ - जो साधु अच्छी तरह भाषा के गुण और दोषों को जानता है तथा मधुरभाषी बुद्धिमान् और शास्त्र के अर्थ करने में तथा श्रोता के अभिप्राय जानने में निपुण है एवं सत्य तत्त्व में जिसकी बुद्धि प्रवेश की हुई है और हृदय धर्म की वासना से वासित है, वही सच्चा साधु है । परन्तु इतने गुणों से युक्त होकर भी जो इन गुणों के मद से दूसरे पुरुष का तिरस्कार करता है, वह विवेकी नहीं है । टीका - भाषागुणदोषज्ञतया शोभनभाषायुक्तो भाषावान् 'भिक्षुः' साधुः, तथा सुष्ठु साधु - शोभनं हितं मितं ५६१
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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