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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा ११-१२
श्रीयाथातथ्याध्ययनम् न तस्स जाई व कुलं व ताणं, णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं। णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्म, ण से पारए होइ विमोयणाए
॥११॥ छाया - न तस्य जातिश्च कुलं न त्राणं, नाऽव्यत्र विद्याचरणं सुचीर्णम् ।
निष्क्रम्य स सेवतेऽगारिकर्म, न स पारगो भवति विमोचनाय ॥ अन्वयार्थ - (तस्स जाई व कुलं व ताणं न) जाति आदि का मद करनेवाले पुरुष की जाति या कुल उसकी रक्षा नहीं करता है (णण्णत्थ विज्जाचरणं सुचिण्णं) अच्छी तरह सेवन किया हुआ ज्ञान और चारित्र के सिवाय कोई भी पदार्थ जीव की रक्षा करने में समर्थ नहीं है। (णिक्खम्म से सेवइऽगारिकम्म) जो प्रव्रज्या लेकर भी फिर गृहस्थ कर्म का सेवन करता है (से विमोयणाए ण पारए होइ) वह अपने कर्मों को क्षपण करने के लिए समर्थ नहीं होता है।
भावार्थ - जाति और कुल मनुष्य को दुर्गति से नहीं बचा सकते । वस्तुतः अच्छी तरह सेवन किये हुए ज्ञान और चारित्र के सिवाय दूसरी कोई वस्तु भी मनुष्य को दुःख से नहीं बचाती है । जो मनुष्य प्रव्रज्या लेकर भी फिर गृहस्थ के कर्मों को सेवन करता है, वह अपने कर्मों को क्षपण करने में समर्थ नहीं होता है।
टीका - न हि 'तस्य' लघुप्रकृतेरभिमानोद्धरस्य जातिमदः कुलमदो वा क्रियमाणः संसारे पर्यटतस्त्राणं भवति, न ह्यभिमानो जात्यादिक ऐहिकामुष्मिकगुणयोरुपकारीति, इह च मातृसमुत्था जातिः पितृसमुत्थं कुलम्, एतच्चोपलक्षणम्, अन्यदपि मदस्थानं न संसारत्राणायेति, यत्पुनः संसारोत्तारकत्वेन त्राणसमर्थं तद्दर्शयति-ज्ञानं च चरणं च ज्ञानचरणं तस्मादन्यत्र संसारोत्तारणत्राणाशा न विद्यते, एतच्च सम्यक्त्वोपबृंहितं सत् सुष्ठु चीर्णं सुचीर्णं संसारादुत्तारयति, 'ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्ष' इति वचनात्, एवंभूते सत्यपि मोक्षमार्गे 'निष्क्रम्यापि' प्रव्रज्यां गृहीत्वापि कश्चिदपुष्टधर्मा संसारोन्मुख: 'सेवते' अनुतिष्ठत्यभ्यस्यति पौनःपुन्येन विधत्ते अगारिणां-गृहस्थानामङ्ग-कारणं जात्यादिकं मदस्थानं, पाठान्तरं वा 'अगारिकम्म'ति अगारिणां कर्म अनुष्ठानं सावद्यमारम्भं जातिमदादिकं वा सेवते, न चासावगारिकर्मणां सेवकोऽशेषकर्ममोचनाय पारगो भवति, निःशेषकर्मक्षयकारी न भवतीति भावः । देशमोचना तु प्रायशः सर्वेषामेवासुमतां प्रतिक्षणमुपजायत इति ॥११।।
टीकार्थ - जो तुच्छ प्रकृतिवाला पुरुष अभिमान से उद्धत होता है, उसका जाति मद या कुल मद संसार में भ्रमण करने से रक्षा नहीं करते हैं। जाति आदि का अभिमान इस लोक में या परलोक में कोई उपकार नहीं करता है । यहाँ माता से उत्पन्न होनेवाली जाति है और पिता से उत्पन्न कुल है । यह जाति और कुल उपलक्षण हैं, इसलिए दूसरे भी मद के स्थान संसार से रक्षा करने में समर्थ नहीं है, यह जानना चाहिए । संसार से रक्षा करने में जो वस्तु समर्थ है, उसे शास्त्रकार दिखाते हैं - ज्ञान और चारित्र संसार से रक्षा करते हैं, इनसे भिन्न किसी दूसरी वस्तु से संसार के पार करने की आशा नहीं है । ज्ञान और चारित्र, सम्यक्त्व से युक्त होकर अच्छी तरह सेवन किये हुए संसार से पार करते हैं, क्योंकि ज्ञान और क्रिया से मोक्ष होता है, यह वचन है । ऐसा होने पर भी कोई धर्महीन और संसार भ्रमण करने में तत्पर पुरुष दीक्षा लेकर भी गृहस्थों के कार्य जाति आदि मदों को लेकर बार-बार अभिमान करते हैं । अथवा पाठान्तर के अनुसार वे सावध कर्म का अनुष्ठान अथवा जातिमद आदि का सेवन करनेवाला पुरुष अपने समस्त कर्मों का क्षय करने के लिए समर्थ नहीं होता है । देश से कर्मों का क्षय तो प्रायः सभी प्राणियों को प्रतिक्षण होता रहता है ॥११।
- पनरप्यभिमानदोषाविर्भावनायाह -
- फिर शास्त्रकार अभिमान के दोष को बताने के लिए कहते हैं - णिकिंचणे भिक्खू सुलूहजीवी, जे गारवं होइ सलोगगामी । आजीवमेयं तु अबुज्झमाणो, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति
॥१२॥
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