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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा १०
श्रीयाथातथ्याध्ययनम् प्रणीत मार्ग में स्थित नहीं हैं । अब सर्वज्ञ मत का विशेषण बताते हैं जो सत्य अर्थ को बताकर वाणी की रक्षा करता उसे गोत्र कहते हैं । वह सर्वज्ञमत गोत्र है यानी वह समस्त आगमों का आधारभूत है । अथवा जो उच्च गोत्र में उत्पन्न होकर उसका अभिमान करता है, वह सर्वज्ञ के मार्ग में स्थित नहीं है । तथा जो पुरुष मान यानी पूजा सत्कार पाकर खूब गर्व करता है, वह भी सर्वज्ञ के मार्ग में स्थित नहीं है । एवं जो पुरुष संयम लेकर भी ज्ञान आदि मदस्थानों का मद करता है, वह परमार्थ को नहीं जानता है, वह सब शास्त्रों को पढ़कर तथा उसका अर्थ समझकर भी वस्तुतः सर्वज्ञ मत को नहीं जानता ॥ ९ ॥
सर्वेषां मदस्थानानामुत्पत्तेरारभ्य जातिमदो बाह्यनिमित्तनिरपेक्षो यतो भवत्यस्तमधिकृत्याह -
मद के जितने स्थान हैं, सभी में जातिमद प्रधान है क्योंकि वह जन्म लेनेमात्र से होता है और दूसरे किसी बाह्य कारण की अपेक्षा नहीं करता है, इसलिए शास्त्रकार उसी के विषय में उपदेश करते हैं
जे माहणो खत्तियजायए वा, तहुग्गपुत्ते तह लेच्छई वा ।
जे पव्वईए परदत्त भोई, गोत्ते ण जे थब्भति (थंभभि) माणबद्धे
छाया यो ब्राह्मणः क्षत्रियनातको वा, तथोग्रपुत्रस्तथा लेच्छको वा । यः प्रव्रजितः परदत्तभोजी गोत्रे न यः स्तभ्नात्यभिमानबद्धे ||
अन्वयार्थ - (जे माहणो) जो ब्राह्मण है (खत्तियजायए वा) तथा जो क्षत्रियजाति है (तहुग्गपुत्ते) तथा जो उग्र पुत्र है ( तह लेच्छई वा) एवं जो लेच्छक यानी क्षत्रिय विशेष है (जे पव्वईए परदत्तभोई) जो दीक्षा लेकर दूसरे का दिया हुआ आहार खाता है (जे माणबद्धे गोत्ते ण थब्मति) जो अभिमानयुक्त होकर गोत्र का गर्व नहीं करता है । ( वही सच्चा साधु है ।)
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भावार्थ - ब्राह्मण, क्षत्रिय, उग्रपुत्र अथवा म्लेच्छ क्षत्रियों की विशेष जातिवाला जो पुरुष दीक्षा लेकर दूसरे का दिया हुआ आहार खाता है और अपने उच्च गोत्र का अभिमान नहीं करता है, वही पुरुष सर्वज्ञ के मार्ग का अनुगामी है ।
टीका यो हि जात्या ब्राह्मणो भवति क्षत्रियो वा - इक्ष्वाकुवंशादिकः, तद्भेदमेव दर्शयति- 'उग्रपुत्रः ' क्षत्रियविशेष-जातीयः तथा 'लेच्छइ'त्ति क्षत्रियविशेष एव तदेवमादिविशिष्टकुलोद्भूतो यथावस्थितसंसारस्वभाववेदितया यः ‘प्रव्रजितः' त्यक्तराज्यादिगृहपाशबन्धनः परैर्दत्तं भोक्तुं शीलमस्य परदत्तभोजी - सम्यक्संयमानुष्ठायी 'गोत्रे' उच्चैर्गोत्रे हरिवंश-स्थानीये समुत्पन्नोऽपि नैव 'स्तम्भं' गर्वमुपयायादिति, किंभूते गोत्रे ? 'अभिमानबद्धे' अभिमानास्पदे इति, एतदुक्तं भवति-विशिष्टजातीयतया सर्वलोकाभिमान्योऽपि प्रव्रजितः सन् कृतशिरस्तुण्डमुण्डनो भिक्षार्थं परगृहाण्यटन् कथं हास्यास्पदं गर्वं कुर्यात् ?, नैवासौ मानं कुर्यादिति तात्पर्यार्थः ॥१०॥
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।।१०।।
टीकार्थ जो पुरुष ब्राह्मण जाति में उत्पन्न है अथवा इक्ष्वाकु वंश आदि क्षत्रिय जाति में जन्मा है तथा जो उग्र नामक क्षत्रिय विशेष जाति में पैदा हुआ हैं एवं जो म्लेच्छ नामक क्षत्रियों की विशेष जाति में जन्म लिया है, इस प्रकार विशिष्ट जाति में उत्पन्न होकर जो संसार के यथार्थ स्वभाव को जानकर राज्य आदि पाशबन्धन को छोड़कर दीक्षाधारी हो गया है और दूसरे का दिया हुआ आहार आदि भोगता है, वह शुद्ध संयम को पालन करनेवाला पुरुष हरिवंश के समान उच्चकुल में उत्पन्न होकर भी अभिमान के स्थान रूप गोत्र का मद न करे । आशय यह है कि- जो पुरुष विशिष्ट कुल में उत्पन्न होने के कारण सब लोगों का माननीय है, वह दीक्षा लेकर भिक्षा के लिए दूसरे के घरों में जाता हुआ किस प्रकार हास्य के स्थान रूप गर्व कर सकता है ? उसे कदापि गर्व न करना चाहिए यह तात्पर्य्यार्थ है ॥१०॥
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- न चासौ मानः क्रियमाणो गुणायेति दर्शयितुमाह
जाति आदि का मान करना किसी गुण के लिए नहीं होता है यह शास्त्रकार बताते हैं
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