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श्रीयाथातथ्याध्ययनम्
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा ७
न भवत्यमायाप्राप्तो वा यदिवा अझञ्झाप्राप्तैः - अकलहप्राप्तैः सम्यग्दृष्टिभिरसौ समो न भवति यतः अतो नैवंविधेन भाव्यम्, अपि त्वक्रोधनेनाकर्कशभाषिणा चोपशान्तयुद्धानुदीरकेण न्याय्यभाषिणाऽझञ्झाप्राप्तेन मध्यस्थेन च भाव्यमिति । एवमनन्तरोद्दिष्टदोषवर्जी सन्नुपपातकारी - आचार्यनिर्देशकारी यथोपदेशं क्रियासु प्रवृत्तः यदिवा 'उपायकारि' त्ति सूत्रोपदेशप्रवर्तकः, तथा - ह्रीः लज्जा संयमो मूलोत्तरगुणभेदभिन्नस्तत्र मनो यस्यासौ ह्रीमनाः, यदिवा - अनाचारं कुर्वन्नाचार्यादिभ्यो लज्जते स एवमुच्यते, तथैकान्तेन तत्त्वेषु जीवादिषु पदार्थेषु दृष्टिर्यस्यासावेकान्तदृष्टिः, पाठान्तरं वा 'एगंतडित्त एकान्तेन, श्रद्धावान् मौनीन्द्रोक्तमार्गे एकान्तेन श्रद्धालुरित्यर्थः चकारः पूर्वोक्तिदोषविपर्यस्तगुणसमुच्चयार्थः, तद्यथाज्ञानापलिकुञ्चकोऽक्रोधीत्यादि तावदझञ्झाप्राप्त इति, स्वत एवाह - 'अमाइरूवे 'त्ति अमायिनो रूपं यस्यासावमायिरूपोशेषच्छद्मरहित इत्यर्थः, न गुर्वादीन् छद्मनोपचरति नाप्यन्येन केनचित्सार्धं छद्मव्यवहारं विधत्त इति ||६||
टीकार्थ - सत्य तत्त्व को न जाननेवाला जो पुरुष लड़ाई झगड़ा करता है, यद्यपि कोई पुरुष प्रत्युपेक्षण आदि क्रियाओं को करता है तथापि वह युद्ध प्रिय होता है तथा जो न्याय को छोड़कर बोलता है अर्थात् बिना विचारे बोलता है अथवा प्रसङ्ग के बिना बोलता है अथवा गुरु आदि पर आक्षेप करता है, वह पुरुष राग और द्वेष से युक्त होने के कारण मध्यस्थ नहीं हो सकता तथा वह कलह रहित अथवा माया रहित नहीं है, अतः साधु को ऐसा नहीं होना चाहिए । किन्तु क्रोध रहित तथा कर्कश वाक्य न बोलनेवाला एवं मिटे हुए कलह को फिर से न जगानेवाला और न्यायपूर्वक बोलनेवाला एवं कलह रहित और मध्यस्थ होकर रहना चाहिए । इस प्रकार पहले बताये हुए दोषों को वर्जित करके जो गुरु की आज्ञा का पालन करता है अर्थात् गुरु के उपदेश के अनुसार क्रियाओं में प्रवृत्त होता है अथवा शास्त्रोक्त उपदेश के अनुसार प्रवृत्ति करता है तथा मूलगुण और उत्तरगुण के पालन करने में चित्त रखता अथवा अनाचार करता हुआ गुरु आदि से लज्जित होता है तथा जीवादि तत्त्वों में एकान्त दृष्टि रखता है तथा "एगंत सट्ठि" इस पाठान्तर के अनुसार मौनीन्द्र के कहे हुए मार्ग में पूरी श्रद्धा रखता है एवं पूर्वोक्त दोषों से विपरीत अर्थ का सूचक चकार होने से जो अपने गुरु का नाम छिपाता नहीं है तथा क्रोध नहीं करता है एवं कलह नहीं करता है, वही पुरुष समस्त माया से रहित उत्तम साधु है । वह कपट से गुरु की सेवा नहीं करता है और दूसरे किसी के साथ भी वह कपट के साथ कोई व्यवहार नहीं करता है ॥६॥
पुनरपि सद्गुणोत्कीर्तनायाह -
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फिर भी शास्त्रकार सद्गुणों को बताने के लिए कहते हैं से पेसले सुहुमे पुरिसजाए, जच्चन्निए चेव सुउज्जुयारे । बहुपि अणुसासिए जे तहच्चा, समे हु से होइ अझंझपत्ते
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॥७॥
छाया - स पेशलः सूक्ष्मः पुरुषजातः जात्यन्वितश्चैव सुऋज्वाचारः । बहृप्यनुशास्यमानो यस्तथार्चः समः स भवत्यझञ्झाप्राप्तः ॥
अन्वयार्थ - ( बहुपि अणुसासिए जे तहच्चा ) भूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा शासन किया हुआ जो पुरुष अपनी चित्तवृत्ति को शुद्ध रखता है (से पेस हुने पुरिसजाए ) वही पुरुष विनयादि गुणों से युक्त है तथा वही सुक्ष्म अर्थ को देखनेवाला है और वही पुरुषार्थ करनेवाला है । (जच्चन्निए चेव सुउज्जुयारे ) तथा वही उत्तम जातिवाला और संयम को पालन करनेवाला है ( से समे हु अझंझपत्ते होइ) तथा वही समभाव और अमाया को प्राप्त है ।
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भावार्थ - किसी विषय में प्रमादवश भूल हो जाने के कारण जो गुरु आदि के द्वारा शिक्षा दिया हुआ चित्तवृत्ति को पवित्र रखता है अर्थात् क्रोध न करता हुआ फिर शुद्ध संयमपालन में प्रवृत्त हो जाता है, वही विनयादि गुणों से युक्त है तथा वही सूक्ष्म अर्थ को देखनेवाला और पुरुषार्थ करनेवाला है एवं वही जातिसम्पन्न और संयम को पालनेवाला है। वह पुरुष वीतराग पुरुषों के समान मानने योग्य है ।
टीका - यो हि कटुसंसारोद्विग्नः क्वचित्प्रमादस्खलिते सत्याचार्यादिना बह्वपि 'अनुशास्यमानः ' चोद्यमानस्तथैवसन्मार्गानुसारिण्यर्चा लेश्या चित्तवृत्तिर्यस्य स भवति तथार्च:, यश्च शिक्षां ग्राह्यमाणोऽपि तथार्चो भवति स 'पेशलो: