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श्रीयाथातथ्याध्ययनम्
सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा ८
मिष्टवाक्यो विनयादिगुणसमन्वितः 'सूक्ष्मः' सूक्ष्मदर्शित्वात्सूक्ष्मभाषि (वि) त्वाद्वा सूक्ष्मः स एव पुरुषजात:' स एव परमार्थतः पुरुषार्थकारी नापरो योऽनायुधतपस्विजनपराजितेनापि क्रोधेन जीयते, तथाऽसावेव 'जात्यन्वितः' सुकुलोत्पन्नः सच्छीलान्वितो हि कुलीन इत्युच्यते, न सुकुलोत्पत्तिमात्रेण, तथा स एव सुष्ठु - अतिशयेन ऋजु :- संयमस्तत्करणशीलःऋजुकरः, यदिवा 'उज्जुचारे' त्ति यथोपदेशं यः प्रवर्तते न तु पुनर्वक्रतयाऽचार्यादिवचनं विलोमयति- प्रतिकूलयति, यश्च तथार्चः पेशलः सूक्ष्मभाषी जात्यादिगुणान्वितः क्वचिदवक्रः 'समो' मध्यस्थो निन्दायां पूजायां च न रुष्यति नापि तुष्यति तथा अझंझा-अक्रोधोऽमाया वा तां प्राप्तोऽझञ्झाप्राप्तः, यदिवाऽझञ्झाप्राप्तैः - वीतरागैः 'समः ' तुल्यो भवतीति ॥७॥ टीकार्थ जो पुरुष दुःखरूप संसार से घबरा गया है और प्रमादवश किसी विषय में भूल होने पर गुरु के द्वारा बहुत शिक्षा देने पर भी पूर्ववत् ही सन्मार्ग में चित्तवृत्ति रखनेवाला है अर्थात् जो गुरु की शिक्षा पाकर पूर्ववत् ही अपनी चित्तवृत्ति को शुद्ध रखता है, वह पुरुष मीठा बोलनेवाला और विनय आदि गुणों से युक्त है तथा सूक्ष्म अर्थ को देखनेवाला अथवा सूक्ष्म अर्थ को कहनेवाला होने के कारण वह सूक्ष्म है एवं वही वस्तुतः पुरुषार्थ करनेवाला है परन्तु जो पुरुष शस्त्र रहित तपस्वियों से भी हारे हुए क्रोध के द्वारा जीत लिया जाता है, वह पुरुषार्थ करनेवाला नहीं है । तथा वही पुरुष उत्तम कुल में उत्पन्न है क्योंकि जिसका शील अच्छा है, वही कुलीन कहा जाता है, परन्तु उत्तम कुल में उत्पन्न होने मात्र से कुलीन नहीं कहा जाता । एवं वही पुरुष संयम को पालन करनेवाला है । अथवा इस गाथा की व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिए जो पुरुष गुरु के उपदेश के अनुसार आचरण करता है परन्तु वक्रता से गुरु के वचन का खण्डन नहीं करता है तथा अपनी चित्तवृत्ति को शुद्ध रखता है और सूक्ष्म अर्थ को कहता है एवं जाति आदि गुणों से युक्त है तथा किसी विषय में कभी कपट नहीं करता है एवं अपनी निन्दा सुनकर क्रोधित और प्रशंसा सुनकर हर्षित नहीं होता है किन्तु निन्दा और पूजा दोनों ही में सम होकर रहता है, वही पुरुष क्रोध रहित है तथा वही माया वर्जित है अथवा वही पुरुष वीतराग पुरुषों के समान है ॥७॥
प्रायस्तपस्विनां ज्ञानतपोऽवलेपो भवतीत्यतस्तमधिकृत्याह
प्रायः तपस्वियों को ज्ञान और तप का गर्व होता है, इसलिए शास्त्रकार इस विषय को लेकर उपदेश
करते हैं
जे आवि अप्पं वसुमंत मत्ता, संखायवायं अपरिक्ख कुज्जा । तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता, अण्णं जणं पस्सति बिंबभूयं
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छाया - • यश्चाऽप्यात्मानं वसुमन्तं मत्त्वा, संख्यावन्तं वादमपरीक्ष्य कुर्य्यात् । तपसावाहं सहित इति मत्त्वाऽव्यं जनं पश्यति बिम्बभूतम् ॥
॥ ८ ॥
अन्वयार्थ - (जे आवि अप्पं वसुमंत संखाय मत्ता) जो अपने को संयमी और ज्ञानी मानकर (अपरिक्ख वायं कुज्जा) बिना परीक्षा किये अपनी बड़ाई करता है (तवेण वाहं सहिउत्ति मत्ता) तथा मैं बड़ा तपस्वी यह मानकर (अण्णं जणं बिंबभूयं पस्सति) दूसरे जन को जल में पड़ी हुई चन्द्रमा की छाया के समान निरर्थक देखता है ।
भावार्थ - जो अपने को संयमी ज्ञानवान् और तपस्वी मानता हुआ अपनी बड़ाई करता और दूसरे को जल में पडे हुए चन्द्र बिम्ब के समान निरर्थक देखता है वह अभिमानी जीव अविवेकी है ।
टीका यश्चापि कश्चिल्लघुप्रकृतिरल्पतयाऽऽत्मानं वसु द्रव्यं तच्च परमार्थचिन्तायां संयमस्तद्वन्तमात्मानं मत्वाऽहमेवात्र संयमवान् मूलोत्तरगुणानां सम्यग्विधायी नापर: कश्चिन्मत्तुल्योऽस्तीति, तथा संख्यायन्ते - परिच्छिद्यन्ते जीवादयः पदार्था येन तज्ज्ञानं सङ्ख्येत्युच्यत तद्वन्तमात्मानं मत्वा तथा सम्यक् परमार्थमपरीक्ष्यात्मोत्कर्षवादं कुर्यात् तथा तपसा-द्वादशभेदभिन्नेनाहमेवात्र सहितो युक्तो न मत्तुल्यो विकृष्टतपोनिष्टप्तदेहोऽस्तीत्येवं मत्वाऽऽत्मोत्कर्षाभिमानीति 'अन्यं जनं' साधुलोकं गृहस्थलोकं वा 'बिम्बभूतं' जलचन्द्रवत्तदर्थशून्यं कूटकार्षापणवद्वा लिङ्गमात्रधारिणं पुरुषाकृतिमात्रं
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