________________
सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा ६
श्रीयाथातथ्याध्ययनम्
टीका - यो ह्यविदितकषायविपाकः प्रकृत्यैव क्रोधनो भवति तथा 'जगदर्थभाषी' यश्च भवति, जगत्यर्था जगदर्था ये यथा व्यवस्थिताः पदार्थास्तानाभाषितुं शीलमस्य जगदर्थभाषी, तद्यथा - ब्राह्मणं डोडमिति ब्रूयात्तथा वणिजं किराटमिति शूद्रमाभीरमिति श्वपाकं चाण्डालमित्यादि तथा काणं काणमिति तथा खअं कुब्जं वडभमित्यादि तथा कुष्ठिनं क्षयिणमित्यादि यो यस्य दोषस्तं तेन खरपरुषं ब्रूयात् यः स जगदर्थभाषी, यदिवा जयार्थभाषी यथैवा - ऽऽत्मनो जयो भवति तथैवाविद्यमानमप्यर्थं भाषते तच्छीलश्च येन केनचित्प्रकारेणासदर्थभाषणेनाप्यात्मनो जयमिच्छतीत्यर्थः । 'विओसियं' ति विविधमवसितं पर्यवसितमुपशान्तं द्वन्द्वं - कलहं यः पुनरप्युपदीरयेत् एतदुक्तं भवति - कलह-कारिभिर्मिथ्यादुष्कृतादिना परस्परं क्षामितेऽपि तत्तद् ब्रूयाद्येन पुनरपि तेषां क्रोधोदयो भवति । साम्प्रतमेतद्विपाकं दर्शयति-यथा ह्यन्ध: - चक्षुर्विकलो 'दण्डपथं' गोदण्डमार्गं [लघुमार्गं] प्रमुखोज्ज्वलं 'गृहीत्वा' आश्रित्य व्रजन् सम्यगकोविदतया 'धृष्यते' कण्टकश्वापदादिभि: पीडयते, एवमसावपि केवलं लिङ्गधार्यनुपशान्तक्रोधः कर्कशभाष्यधिकरणोद्दीपक:, तथा 'अविओसिए'त्ति अनुपशान्तद्वन्द्वः पापम्-अनार्यं कर्म-अनुष्ठानं यस्यासौ पापकर्मा धृष्यते चतुर्गतिके संसारे यातनास्थानगतः पौनःपुन्येन पीडयत इति ॥५॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ जो पुरुष कषायों के फल को नहीं जानता है और स्वभाव से ही क्रोध करता रहता है तथा जगत् का जो पदार्थ जैसा है, उसे जो वैसा ही कहता है अर्थात् जो ब्राह्मण को 'डोड़' और बनिये को 'किराट' शूद्र को आभीर, श्वपाक को चाण्डाल तथा काणे को काणा, लँगड़े को लँगड़ा, कुबड़े को कुबड़ा, कुष्टवाले को कुष्टवाला और क्षयी को क्षयी, इस प्रकार जिसका जो दोष है, उसे कड़े शब्दों में कहता है अथवा जैसा कहने से अपनी जीत होती है, वह चाहे मिथ्या भी हो, उसे अपनी जीत के लिए कहता है, आशय यह है कि मिथ्याभाषण आदि जिस किसी उपाय से अपनी जीत चाहता है तथा जो सब प्रकार से मिटे हुए कलह को फिर से जगाता है, भाव यह है कि- कलह करनेवाले लोग "मिच्छा मि दुक्कडं" कहकर परस्पर क्षमापना कराकर शान्त हो चुके हैं, तो भी जो ऐसी बातें कहता है, जिससे उनका शान्त क्रोध फिर भड़क उठता है, उस पुरुष को जो फल प्राप्त होता है, उसे दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैं- जैसे अन्धा मनुष्य छोटे मार्ग से जाता हुआ अच्छी तरह मार्ग न जानने के कारण काँटे और जङ्गली जानवर आदि से पीड़ित किया जाता है, इसी तरह केवल साधु के लिङ्ग को धारण करनेवाला जो क्रोध को शान्त किया हुआ नहीं है तथा कटुभाषी और कलह को जगानेवाला है, वह पापी पुरुष चार गतिवाले संसार में यातना स्थान को प्राप्त होकर बार-बार क्लेश भोगता ॥५॥
-
जे विग्गही अन्नाय भासी, न से समे होइ अझंझपत्ते ।
उ (ओ) वायकारी य हरीमणे, य, एगंतदिट्ठी य अमाइरूवे
छाया - यो विग्रहिकोऽन्यायभाषी न सः समो भवत्यझंझाप्राप्तः | उपपातकारी च ड्रीमनाश्च, एकान्तदृष्टिश्चामायिरूपः ॥
अन्वयार्थ - (जे विग्गहीए) जो पुरुष झगड़ा करनेवाला है (अन्नायभासी) तथा न्याय को छोड़कर भाषण करता है ( से समे न होइ ) वह समता को प्राप्त नहीं होता है (अझंझपत्ते) और वह कलह रहित भी नहीं होता है । ( उवायकारी) परन्तु जो गुरु की आज्ञा पालन करता है ( हरीमणे य) और पाप करने में गुरु आदि से लज्जित होता है ( एगंतदिट्ठी य) एवं जीवादि तत्त्वों में पूरी श्रद्धा रखता है ( अमाइरूवे ) वही पुरुष अमायी हैं ।
-
॥६॥
-
भावार्थ जो कलह करता है तथा अन्याय पूर्वक बोलता है, वह समता को प्राप्त नहीं होता है, अतः साधु गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला, पापकर्म करने में गुरु आदि से लज्जित होनेवाला और जीवादि तत्त्वों में पूरी श्रद्धा रखनेवाला बने, जो पुरुष ऐसा है, वही अमायी है ।
टीका यः कश्चिदविदितपरमार्थो विग्रहो-युद्धं स विद्यते यस्यासौ विग्रहिको यद्यपि प्रत्युपेक्षणादिकाः क्रिया विधत्ते तथापि युद्धप्रियः कश्चिद्भवति, तथाऽन्याय्यं भाषितुं शीलमस्य सोऽन्याय्यभाषी यत्किञ्चनभाष्यस्थानभाषी गुर्वाद्यधिक्षेपकरो वा यश्चैवंभूतो नासौ 'समो' रक्तद्विष्टतया मध्यस्थो भवति, तथा नाप्यझञ्झां प्राप्तः - अकलहप्राप्तो वा
५५५