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________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा ५ श्रीयाथातथ्याध्ययनम् ज्ञानावलेपात् 'पलिउंचय'ति त्ति निहनुवते, यदिवा-सदपि प्रमादस्खलितमाचार्यादिनाऽऽलोचनादिके अवसरे पृष्टाः सन्तो मातस्थानेनावर्णवादभयान्त्रिहनवते । त एवं पलिकञ्चिका-निह्नवं कर्वाणा आदीयत इत्यादानं ज्ञानादिकं मोक्षो वा तमर्थं वञ्चयन्ति-भ्रंशयन्त्यात्मनः, खलुरवधारणे वञ्चयन्त्येव । एवमनुष्ठायिनश्चासाधवस्ते परमार्थतस्तत्त्व'इह' अस्मिन् जगति साधुविचारे वा 'साधुमानिन' आत्मोत्कर्षात् सदनुष्ठानमानिनो मायान्वितास्ते 'एष्यन्ति' यास्यन्ति 'अनन्तशो' बहुशो 'घातं' विनाशं संसारं वा अनवदग्रं संसारकान्तारमनुपरिवर्तयिष्यन्तीति, दोषद्वयदुष्टत्वात्तेषाम्, एकं तावत्स्वयमसाधवो द्वितीयं साधुमानिनः, उक्तंच"पावं काऊण सयं अप्पाणं सुदमेव वाहरइ । दुगुणं करेइ पावं बीयं बालस्य मंदत्तं ||१||" तदेवमात्मोत्कर्षदोषारोधिलाभमप्युपहत्यानन्तसंसारभाजो भवन्त्यसुमन्त इति स्थितम् ॥४॥ टीकार्थ - जो जीव सत्य तत्त्व को नहीं जानते हैं और थोड़ासा ज्ञान पाकर बहुत अभिमान रखते हैं तथा "आपने किस आचार्य से शास्त्र पढ़े हैं।" इस प्रकार किसी के पूछने पर ज्ञान के गर्व से अपने सच्चे गुरु का नाम छिपाकर दूसरे किसी प्रसिद्ध आचार्य का नाम लेते हैं अथवा "मैंने स्वयं इस शास्त्रों का अध्ययन किया हैं।" यह कहकर ज्ञान के गर्व से गुरु का नाम छिपाते हैं अथवा जो स्वयं प्रमादवश भूल करते हैं और आलोचना के समय गुरु आदि के पूछने पर 'मेरी निन्दा होगी ।" इस भय से मिथ्या भाषण करते हैं, वे गुरु का नाम छिपानेवाले पुरुष ज्ञान आदि से तथा मोक्ष से अपने को वञ्चित करते हैं। खलु शब्द निश्चयार्थक है, इसलिए वे अवश्य अपने को वञ्चित करते हैं, यह अर्थ है । इस प्रकार का कार्य करनेवाले वे साधु नहीं हैं । सत्य बात तो यह है कि- इस जगत् में साधुपने का विचार करने पर वे अपने गर्व के कारण अपने अनुष्ठान को उत्तम समझते हैं परन्तु है वे मायावी, वे साधु नहीं है। वे अनन्तकाल नाश को या संसार को प्राप्त करेंगे। वे दो दोषों से दूषित हैं इसलिए अनन्त कालतक संसाररूपी वन में भ्रमण करेंगे । एक दोष उनका यह है कि- वे स्वयं असाधु हैं और दूसरा यह है कि वे अपने को साधु मानते हैं, अत एव कहा है कि"जो स्वयं पाप करके भी अपने को शुद्ध ही बताता है, वह द्विगुण पाप करता है, यह मूर्ख जीव की दूसरी मूर्खता है।" इस प्रकार निह्नव पुरुष अपने गर्व के कारण बोधिलाभ का भी नाश करते हैं और अनन्त संसारी भी होते हैं, यह सिद्ध हुआ ॥४॥ - मानविपाकमुपदाधुना क्रोधादिकषायदोषमुद्रावयितुमाह - - मान करने का फल दिखाकर अब शास्त्रकार क्रोध आदि कषायों का दोष दिखाने के लिए कहते हैंजे कोहणे होइ जगट्ठभासी, विओसियं जे उ उदीरएज्जा। अंधे व से दंडपहं गहाय, अविओसिए धासति पावकम्मी छाया - यः क्रोधनो भवति, जगदर्थभाषी व्यवसितं यस्तूदीरयेत् । अब्ध इवासो दण्डपथं गृहीत्वाऽव्यवसितो धृष्यते पापकर्मा ॥ अन्वयार्थ - (जे कोहणे जगट्ठभासी होइ) जो पुरुष क्रोधी है और दूसरे के दोष को कहनेवाला है (जे उ विओसियं उदीरएज्जा) और जो शान्त हुए कलह को फिर जगाता है (पावकम्मी) वह पापकर्म करनेवाला जीव (अविओसिए) सदा कलह में पड़ा हुआ (दंडपहं गहाय अंधे व) लघुमार्ग से जाता हुआ अन्धे की तरह (धासति) दुःख का भागी होता है । भावार्थ- जो पुरुष सदा क्रोध करता है और दूसरे के दोषों को कहता है एवं शान्त हुए कलह को जो फिर प्रदीस करता है, वह पुरुष पापकर्म करनेवाला है तथा वह बराबर झगड़े में पड़ा रहता है। वह छोटे मार्ग से जाते हुए अन्धे की तरह अनन्त दुःखों का भाजन होता है। 1. पापं कृत्वा स्वयं आत्मानं शुद्धमेव व्याहरति, द्विगुणं करोति पापं द्वितीयं बालस्य मन्दत्वम् ।।१।। ५५४
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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