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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते त्रयोदशमध्ययने गाथा ४
श्रीयाथातथ्याध्ययनम् दुर्गृहीतज्ञानलवावलेपिनो ज्ञाने-श्रुतज्ञाने शङ्का ज्ञानशङ्का तया मृषावादं वदेयुः, एतदुक्तं भवति-सर्वज्ञप्रणीते आगमे शङ्का कुर्वन्ति, अयं तत्प्रणीत एव न भवेद् अन्यथा वाऽस्यार्थः स्यात्, यदिवा 'ज्ञानशङ्कया पाण्डित्याभिमानेन मृषावादं वदेयुर्यथाऽहं ब्रवीमि तथैव युज्यते नान्यथेति ॥३॥ किश्चान्यत्
टीकार्थ - जो विविध प्रकार से शोधन किया हुआ है अर्थात् कुमार्ग की प्ररूपणा से हटाकर जो निर्दोष बनाया गया है, वह विशोधित मार्ग है । वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप मोक्ष मार्ग है परन्तु अपने आग्रह में गोष्ठामाहिल की तरह फंसे हुए लोग आचार्यों की परम्परागत प्ररूपणा से विपरीत प्ररूपणा करते हैं। जो लोग अपने अहङ्कार के कारण अपनी इच्छा के अनुसार बनाई हुई व्याख्या में मोहित होकर आचार्यों की परम्परा से आये हुए अर्थ को त्यागकर उससे विपरीत अर्थ बताते हैं और दूसरों को समझाते हैं, वे कर्म के उदय के कारण
को पर्वापर ग्रन्थ के अनसार समझने में समर्थ नहीं है. अतः अपने को पण्डित माननेवाले वे उत्सूत्र प्ररूपणा करते हैं । अपनी रुचि के अनुसार शास्त्र की व्याख्या करना महान् अनर्थ का कारण है, यह शास्त्रकार दिखलाते हैं - जो पुरुष अपने आग्रह के कारण ऐसा करता है, वह ज्ञान आदि गुणों का भाजन नहीं होता है । वे गुण ये हैं -
पहले गुरु से ज्ञान सुनता है, तब प्रश्न करता है, पश्चात् उसका उत्तर सुनता है फिर उसे ग्रहण करता है, इसके बाद तर्क करता है, उसका समाधान होने पर निश्चय करता है और उसे याद रखता है, पश्चात् उसके अनुसार आचरण करता है।
___ अथवा गुरु की सेवा करने से सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होती है, तब सम्यग् अनुष्ठान होता है और सम्यग् अनुष्ठान से मोक्ष की प्राप्ति होती है, इन गुणों का वह निह्नव पुरुष पात्र नहीं होता है और कहीं-कहीं "अट्ठाणिए होई बहूणिवेस" यह पाठ मिलता है । इसका अर्थ यह है- वह पुरुष ज्ञानादि गुणों का पात्र नहीं होता है। कौन? जो बहुत अनर्थ करनेवाला कदाग्रही है अथवा वह पुरुष गुणों का भाजन नहीं होता है किन्तु दोषों का स्थान होता है । कौन से पुरुष ऐसे होते हैं ? सो शास्त्रकार दिखाते हैं, जो पुरुष थोड़ी विद्या पढ़कर अपने ज्ञान का घमण्ड करके केवली के ज्ञान में शंका करते हुए मिथ्या भाषण करते हैं । आशय यह है कि जो सर्वज्ञ के कहे हुए आगम में शंका करते हैं और कहते हैं कि- "यह आगम सर्वज्ञ का कहा हुआ हो ही नहीं सकता अथवा इसका अर्थ दूसरा हैं ।" अथवा जो अपने पाण्डित्य के अभिमान से झूठ बोलते हैं कि - "मैं जैसा कहता हूं, उसी तरह अर्थ ठीक होता है ओर तरह नहीं होता है ॥३॥
जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति, आयाणमढें खलु वंचयित्ता (यंति)। असाहुणो ते इह साहुमाणी, मायण्णि एसंति अणंतघातं
॥४ ॥ छाया - येचाऽपि पृष्टाः परिकुशयन्ति, आदानमर्थ खलु वशयन्ति ।
असाधवस्ते इह साधुमानिनो मायाब्विता एष्यन्त्यनन्तघातम् ॥ अन्वयार्थ - (जे यावि पुट्ठा पलिउंचयंति) जो लोग पूछने पर अपने गुरु का नाम छिपाते हैं (आयाणमटुं खलु वंचयित्ता) वे मोक्ष से स्वयं वंचित होते हैं (त असाहुणो इह साहुमाणी) वे वस्तुतः असाधु है परन्तु अपने को साधु मानते हैं (मायण्णि अणंतघातं एसंति) वे मायावी पुरुष अनन्तबार संसार में घात को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - जो पुरुष पूछने पर अपने गुरु का नाम छिपाते हैं और दूसरे किसी बड़े आचार्य आदि का नाम बताते हैं, वे मोक्ष से अपने को वंचित करते हैं। वे वस्तुतः साधु नहीं हैं तथापि अपने को साधु मानते हैं। वे मायावी जीव अनन्तबार संसार के दुःखों के पात्र होते हैं।
टीका - ये केचनाविदितपरमार्थाः स्वल्पतया समुत्सेकिनोऽपरेण पृष्टाः कस्मादाचार्यात्सकाशादधीतं श्रुतं भवद्भिरिति, ते तु स्वकीयमाचार्य ज्ञानावलेपेन निहनुवाना अपरं प्रसिद्ध प्रतिपादयन्ति, यदिवा मयैवैतत्स्वत उत्प्रेक्षितमित्येवं 1. ज्ञानहीनत्वाविर्भावशङ्कया । 2. तुच्छतया । 3. ज्ञातं ।
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