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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा २१
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श्रीसमवसरणाध्ययनम् तथा द्रव्य में रहनेवाली क्रिया भी गुण के समान ही अलग न ही माननी चाहिए । अब सामान्य बताया जाता हैवैशेषिक कहते हैं कि - सामान्य दो प्रकार का है एक परसामान्य और दूसरा अपरसामान्य । इनमें द्रव्यगुण और कर्म में व्याप्त रहनेवाली महासत्ता को वे परसामान्य कहते हैं, जैसे - उनका वचन है "सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता" अर्थात् द्रव्य, गुण और कर्म में सत् यह प्रतीति होती है, इसलिए इनमें रहनेवाली सत्ता जाती है । तथा द्रव्यत्व, गुणत्व और कर्मत्व रूप जाति अपर जाति है । यहां जैनाचार्य कहते हैं कि महासत्ता को अलग पदार्थ मानना ठीक नहीं है क्योंकि - उस सत्ता में जो सत् होने की प्रतीति होती है, वह किसी दूसरी वस्तु के होने से होती है अथवा स्वतः होती है ? । यदि कहो कि दूसरी वस्तु के होने से उसमें सत् की प्रतीति होती है तो फिर उस दूसरी वस्तु में भी किसी तीसरी वस्तु के होने से सत् की प्रतीति होनी चाहिए तथा उस तीसरी वस्तु में चौथी वस्तु के होने से सत् की प्रतीति होनी चाहिए इस प्रकार अनवस्था दोष आता है। यदि कहो कि महासत्ता में स्वतः सत् होने की प्रतीति होती है, दूसरी वस्तु के होने से नहीं तो फिर इसी तरह द्रव्यादि में भी स्वयमेव सत्ता की प्रतीति होगी फिर बकरी के गले के स्तन के समान व्यर्थ एक दूसरी सत्ता की कल्पना करने की क्या आवश्यकता है ? । तथा द्रव्यादि पदार्थों को सत् मानकर उनमें सत्ता के योग से तुम सत् की प्रतीति मानते हो अथवा असत् मानकर ? | यदि सत् मानकर कहो तब तो स्वयमेव सत् की प्रतीति होगी फिर सत्ता की क्या आवश्यकता है ? । और यदि द्रव्यादि को असत् मानकर उनमें सत्ता के योग से सत् की प्रतीति कहो तब तो शशविषाण आदि में भी सत्ता के योग से सत् की प्रतीति होनी चाहिए । अतः एव विद्वानों ने कहा है कि "स्वतोऽर्थाः सन्तु " अर्थात् पदार्थ स्वयमेव सत् हैं, इसलिए सत्स्वरूप पदार्थों को सत्ता की क्या आवश्यकता है । जो पदार्थ असत् हैं, उनमें सत्ता मानी नहीं जाती क्योंकि शशविषाण आदि में अतिप्रसङ्ग होता है । महासत्ता के पक्ष में जो दूषण दिये गये हैं, वे ही दूषण अपरसामान्य (द्रव्यत्व आदि) में भी देना चाहिए क्योंकि इन दोनों की रीति एक ही है । दूसरी बात यह है कि वस्तु सामान्य और विशेष उभय स्वरूप हैं, इसलिए हम भी कथञ्चित् सामान्य को स्वीकार करते हैं । परन्तु वह सामान्य कथंचित् द्रव्य से अभिन्न है, इसलिए द्रव्य के ग्रहण से उसका भी ग्रहण हो जाता है, अतः उसे अलग पदार्थ मानने की आवश्यकता नहीं है । अब विशेष बताये जाते हैं वैशेषिक विशेष नाम का एक पदार्थ मानते हैं, वे कहते हैं कि द्रव्यादि में विशेष नाम के पदार्थ के कारण ही इतर पदार्थों से उसकी व्यावृत्ति होती है । इस विषय में यह विचार किया जाता है कि उन विशेषों में जो विशेष बुद्धि होती है, वह किसके कारण से होती है ? उनमें भी दूसरा विशेष रहता है, यह तुम नहीं कह सकते क्योंकि ऐसा कहने से अनवस्था होगी इसलिए जैसे दूसरे विशेषों के बिना भी विशेषों में विशेष बुद्धि होती है, इसी तरह द्रव्यादि में भी होगी फिर द्रव्यादि से अतिरिक्त विशेष नामक पदार्थ मानने की क्या आवश्यकता है ? । द्रव्य से अभिन्न विशेष को तो हम भी मानते हैं क्योंकि सभी पदार्थ सामान्य और विशेष उभय स्वरूप हैं । वैशेषिक जो यह कहते हैं कि " नित्य द्रव्य में रहनेवाला और सब के अन्त में रहनेवाला विशेष नामक पदार्थ है । नित्य द्रव्य चार प्रकार के परमाणु, मुक्तात्मा, और मुक्त मन हैं इनमें विशेष पदार्थ रहता है इत्यादि" परन्तु यह बात युक्ति रहित होने के कारण सुनने योग्य नहीं है । वैशेषिक समवाय नामक एक पदार्थ मानते हैं । वे कहते हैं कि परस्पर एक दूसरे को छोड़कर नहीं रहनेवाले और आधार एवं आधेय स्वरूप जो पदार्थ हैं, उनमें जो "यह यहां हैं" इस प्रतीति का कारण है, वह समवाय है । उस समवाय को वैशेषिक नित्य और एक मानते हैं। परन्तु समवाय नित्य होने से जितने समवायी हैं, सभी नित्य हो जायँगे यदि समवायियों को अनित्य कहो तो समवाय भी अनित्य हो जायगा क्योंकि समवाय का आधार समवायी ही है । तथा समवाय एक है इसलिए सभी समवायी भी एक हो जायँगे । परन्तु यदि समवायियोंको अनेक कहो तो फिर समवाय भी अनेक होगा । तथा वैशेषिकों ने इस समवाय को सम्बन्ध माना है और सम्बन्ध दो में रहता है इसलिए दण्ड और दण्डी के समान भिन्न भिन्न होने से उसके आश्रयभूत पदार्थ युतसिद्ध ठहरते हैं अयुतसिद्ध नहीं । वीरणों का कट की उत्पत्ति होने पर, वीरणरूप से नाश और कटरूप से उत्पत्ति होती है। जैसे दहीं में दूध अन्वय रूप से स्थित रहता है इसी तरह कट में वीरण अन्वय रूप से स्थित रहता है इसलिए वैशेषिक मत में भी पदार्थों की व्यवस्था ठीक नहीं की गयी है ।
अब सांख्यवादियों के तत्त्व का निरूपण आरम्भ करते हैं- सांख्यवादी कहते हैं कि प्रकृति और पुरुष के
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