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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा २१
श्रीसमवसरणाध्ययनम् वैशेषिकों का ठीक नहीं है क्योंकि - वे ही परमाणु प्रयोग (बनावट) और विस्रसा (कुदरती संयोग) से पृथिवी आदि रूपों में परिणत होते हैं, इसलिए वे अपने द्रव्यत्व को नहीं छोड़ते हैं । अवस्थाभेद होने से द्रव्य का भेद मानने से अतिप्रसङ्ग होगा। आकाश और काल को तो हम जैनों ने भी द्रव्य माना है । दिशा आकाश का अवयव है, इसलिए वह भी अलग द्रव्य नहीं कही जा सकती, क्योंकि ऐसा कहने से अतिप्रसङ्ग होगा । आत्मा, जो कि शरीरमात्रव्यापी और उपयोग स्वभाव है, उसको तो हम जैनों ने भी द्रव्य माना है । तथा मन पुद्गल विशेष है, इसलिए पुद्गल द्रव्य में उसका अन्तर्भाव समझना चाहिए । भाव मन जीव का गुण है, इसलिए उसका आत्मा में अन्तर्भाव है । तथा वैशेषिकमतवाले जो यह कहते हैं कि पृथिवीत्व रूप धर्म के योग से पृथिवी है इत्यादि, वह भी अपने शास्त्र की व्याख्यामात्र है क्योंकि पृथिवी से भिन्न पृथिवीत्व नाम का कोई दूसरा पदार्थ नहीं है, जिसके योग से पृथिवी द्रव्य बनेगी । किन्तु जगत् में जो कुछ पदार्थ देखा जाता है, वह सभी सामान्य और विशेष उभयस्वरूप है। जैसे नरसिंह का आकार उभयस्वरूप है, इसी तरह संसार के समस्त पदार्थ सामान्य और विशेष उभयस्वरूप हैं । अत एव जैनाचार्यों ने कहा है कि - 'नान्वयः' । अर्थात् घट का मिट्टी के साथ एकान्त अभेद नहीं है क्योंकि इनमें भेद स्पष्ट प्रतीत होता है। तथा एकान्त भेद भी नहीं है क्योंकि घट में मिट्टी वर्तमान है, अतः मिट्टी के साथ कथंचित् भेद और कथञ्चित् अभेद रखनेवाला घट एक दूसरी जाति का पदार्थ है । तथा नर नहीं है क्योंकि उसमें सिंह का रूप भी मौजूद है और वह सिंह भी नहीं है क्योंकि उसमें नर का भी रूप है, अतः शब्द, विज्ञान और कार्यों के भेद होने से नरसिंह एक भिन्न जातिवाला पदार्थ है । वैशेषिकों का मत है कि-"रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, रूपी द्रव्य में रहते हैं, इसलिए ये रूपी द्रव्य के विशेष गुण हैं तथा संख्या परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग और परत्व तथा अपरत्व ये सामान्य गुण है क्योंकि ये सभी द्रव्यों में रहते हैं तथा बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार आत्मा के गुण हैं । तथा पृथिवी और जल में गुरुत्व है और पृथिवी, जल, तथा तेज में द्रवत्व है एवं स्नेह जल में ही है तथा वेगाख्य संस्कार मूर्त द्रव्य में ही रहता है एवं शब्द आकाश का गुण है" यहाँ जैनाचार्य कहते हैं कि-संख्या आदि जो सामान्य गुण है, वे रूप आदि की तरह द्रव्य के स्वभाव नहीं हैं, किन्तु वे दूसरे की उपाधि से होते हैं इसलिए वे गुण नहीं हैं । यदि वे गुण हो तो भी गुणों को द्रव्यों से अलग मानना ठीक नहीं है क्योंकि गुणों को द्रव्यों से पृथक् मानने पर द्रव्य के स्वरूप की ही हानि होगी क्योंकि जो गुण और पर्यायों से युक्त है, उसे ही द्रव्य कहते हैं । अतः गुणों के बिना द्रव्य न होने के कारण द्रव्य के ग्रहण से ही गुणों का भी ग्रहण करना चाहिए, परन्तु उन्हें पृथक् पदार्थरूप से ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है।
जो पदार्थ का भाव (धर्म) है उसे, 'तत्त्व' कहते है क्योंकि जिस गुण के होने से द्रव्य में शब्द का प्रयोग होता है, उसी गुण को बताने के लिए शब्द से भाव प्रत्यय होता है। जैसे कि - घट रक्त है, जल को लानेवाला है. और अपने में जल को स्थापन करनेवाला है. ऐसे पदार्थ को सभी लोग घट क को घटत्व, रक्त के भाव को रक्तत्व, आहरण करनेवाले के भाव को आहारकत्व और जलवाले के भाव को जलवत्व कहते हैं । यहाँ घटत्व पद से घटसामान्य और रक्तत्व पद से रक्तगुण तथा आहारकत्व पद से क्रिया एवं जलवत्व पद से जल का सम्बन्ध बताया जाता है और इन्हीं गुणों के होने से, मोटे वर्तुल और जल लाने में समर्थ कुटक नामक द्रव्य में घट शब्द का प्रयोग होता है, इसलिए इन्हीं गुणों को बताने के लिए घट शब्द से त्व और तल् प्रत्यय होते हैं । परन्तु उस घट पदार्थ से रक्त नामक पदार्थ कोई जूदा नहीं है । यदि जूदा है तो वह कौन है जिसके होने से घट शब्द से भाव प्रत्यय होता है तथा वह द्रव्य भी उस गुण से अतिरिक्त कौन है ? जिसमें घट शब्द का प्रयोग होता है ? उत्तर यही हो सकता है कि इन दोनों में एकान्त भेद नहीं है) (अतः द्रव्य से गुणों को पृथक् ग्रहण करना अयुक्त है) यहां शङ्का होती है कि यदि रक्तगुण द्रव्य से भिन्न नहीं है तो क्या "रक्तस्य भावो रक्तत्वम् यह प्रयोग न होना चाहिए ? समाधान यह है कि अवश्य होना चाहिए परन्तु उपचार(आरोप) से होना चाहिए, जैसे कि रक्त को ही द्रव्य मानकर उसके भाव अर्थ में त्व प्रत्यय करके रक्तत्व पद बनना चाहिए परन्तु उपचार (आरोप) तत्त्व के विचार में उपयोगी नहीं है किन्तु शब्द का साधन मात्र ही उसका फल है। तथा शब्द भी आकाश का गुण हो ही नहीं सकता, क्योंकि वह पौद्रलिक है और आकाश अमर्त्त है। वैशेषिकों के कहे हुए शेष पदार्थ तो उनके शास्त्र की व्याख्या मात्र हैं, इसलिए वे किसी अर्थ के साधक या दूषक नहीं हैं।
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