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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १७ श्रीसमवसरणाध्ययनम् छाया - ते नेव कुर्वन्ति न कारयन्ति, भूताभिशतया जुगुप्समानाः । सदा यताः विप्रणमन्ति धीराः, विज्ञप्तिधीराश्च भवन्त्येके || अन्वयार्थ - (दुगुंछमाणा ते) पाप से घृणा करनेवाले तीर्थकर आदि (भूताहिसंकाइ) प्राणियों के घात के भय से (णेव कुव्वंति ण कारव्वंति) स्वयं पाप नहीं करते हैं और दूसरे से भी नहीं कराते हैं (धीरा सया जता विप्पणमंति) कर्म को विदारण करने में निपुण वे पुरुष सब समय पाप के अनुष्ठान से निवृत्त रहकर संयम का अनुष्ठान करते हैं (एगे विणत्तिधीरा य हवंति) परन्तु कोई अन्य दर्शनी ज्ञान मात्र से वीर बनते हैं, अनुष्ठान से नहीं। भावार्थ - पाप से घृणा करनेवाले तीर्थकर और गणधर आदि प्राणियों के घात के भय से स्वयं पाप नहीं करते हैं और दूसरे से भी नही कराते हैं किन्तु कर्म का विदारण करने में निपुण वे पुरुष, सदा पाप के अनुष्ठान से निवृत्त रहकर संयम का पालन करते हैं परन्तु कोई अन्यदर्शनी ज्ञान मात्र से वीर बनते हैं, अनुष्ठान से नहीं । ____टीका - 'ते' प्रत्यक्षज्ञानिनः परोक्षज्ञानिनो वा विदितवेद्याः सावद्यमनुष्ठानं भूतोपमर्दाभिशङ्कया पापं कर्म जुगुप्समानाः सन्तो न स्वतः कुर्वन्ति, नाप्यन्येन कारयन्ति, कुर्वन्तमप्यपरं नानुमन्यते । तथा स्वतो न मृषावादं जल्पन्ति नान्यैन जल्पयन्ति नाप्यपरं जल्पन्तमनुजानन्ति, एवमन्यान्यपि महाव्रतान्यायोज्यानीति । तदेवं 'सदा' सर्वकालं 'यता:' संयताः पापानुष्ठानान्निवृत्ता विविधं-संयमानुष्ठानं प्रति 'प्रणमन्ति' प्रह्रीभवन्ति । के ते ?- धीराः' महापुरुषा इति । तथैके केचन हेयोपादेयं विज्ञायापिशब्दात्सम्यकपरिज्ञाय तदेव निःशवं यज्जिनैः प्रवेदितमित्येवं कृतनिश्चयाः कर्मणि विदारयितव्ये वीरा भवन्ति यदिवा परीषहोपसर्गानीकविजयादीरा इति पाठान्तरं वा 'विण्णत्ति 'एके' केचन गुरुकर्माणोऽल्पसत्त्वाः विज्ञप्तिः-ज्ञानं, तन्मात्रेणैव वीरा नानुष्ठानेन, न च ज्ञानादेवाभिलषितार्थावाप्तिरुपजायते, तथाहि “अधीत्य शालाणि भवन्ति मूर्खा, यस्तु क्रियावान् पुरुषः स विद्वान् । संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, न ज्ञानमात्रेण करोत्यरोगम् ||१||" ||१७|| टीकार्थ - पाप कर्म से घृणा करनेवाले तथा जानने योग्य पदार्थों को जाननेवाले वे प्रत्यक्षदर्शी या परोक्षदर्शी पुरुष प्राणियों की हिंसा के भय से स्वयं पाप नहीं करते हैं और दूसरे से भी नहीं कराते हैं और पाप करते हुए को अनुमति भी नहीं देते हैं । तथा वे स्वयं झूठ नहीं बोलते हैं और दूसरे से नहीं बोलाते हैं और झूठ बोलते हुए को अच्छा नहीं जानते हैं । इसी तरह दूसरे महाव्रतों मे भी योजना करनी चाहिए । इसी प्रकार वे पाप से सदा निवृत्त रहते हुए अनेक प्रकार से संयम का पालन करते हैं, वे कौन हैं ? वे धीर यानी महापुरुष हैं । तथा कोई पुरुष, त्यागने योग्य और ग्रहण करने योग्य वस्तु को जानकर तथा अपि शब्द से उन्हें अच्छी तरह जानकर और शङ्कारहित वही मार्ग है, जिसे जिनवरों ने बताया है, यह निश्चय करके कर्म को विदारण करने में वीर है हैं। अथवा परीषह और उपसर्गों को जीत लेने के कारण वे वीर हैं। यहां "पण्णति वीरा य भवंति एगे" यह पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ यह है कि-कोई गुरुकर्मी अल्प पराक्रमी जीव, ज्ञान मात्र से वीर बनते हैं परन्तु अनुष्ठान से नहीं । परन्तु ज्ञान मात्र से इष्ट अर्थ की प्राप्ति नहीं होती है, अत एव कहा है कि "शास्त्राण्यधीत्य" अर्थात् शास्त्र पढ़कर भी कोई मूर्ख होते हैं, वस्तुतः जो पुरुष शास्त्रोक्त क्रिया का अनुष्ठान करता है, वही पण्डित है क्योंकि अच्छी तरह जानी हुई भी औषधि ज्ञान मात्र से रोग की निवृत्ति नहीं करती है ॥१७॥ - कानि पुनस्तानि भूतानि ? यच्छङ्कयाऽऽरम्भं जुगुप्सन्ति सन्त इत्येतदाशङ्क्याह - वे प्राणी कौन हैं ? जिनके घात की शङ्का से साध पुरुष आरम्भ नहीं करते हैं: यह शङ्का करके शास्त्रकार कहते हैं 1. जुगुप्सन्तः प्र० जुगुप्सां कुर्वन्त इति नामधातोः चैव शतरि । 2. चकारोऽपिशब्दार्थे यद्वा धीरावि इति भविष्यति । 3. ०य वा त० प्र० ५३०
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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