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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १८
श्रीसमवसरणाध्ययनम् डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे, ते आत्तओ पासइ सव्वलोए। उव्वेहती लोगमिणं महंतं, बुद्धेऽपमत्तेसु परिव्वएज्जा
॥१८॥ छाया - डहराश्च प्राणाः वृद्धाश्च प्राणास्तानात्मवत् पश्यति सर्वलोके।
उत्प्रेक्षते लोकमिमं महान्तं बुद्धोऽप्रमत्तेषु परिव्रजेत् ।। अन्वयार्थ - (डहरे य पाणे वुड्ढे य पाणे) छोटे छोटे कुन्थु आदि भी प्राणी हैं, और बड़े-बड़े बादर शरीरवाले भी प्राणी हैं (सव्वलोए ते आत्तओ पासइ) सर्व लोक में उन्हें अपने समान देखना चाहिए (इणं लोग महंत उव्हती) इस लोक को महान् समझना चाहिए (बुद्धे अपमत्तेसु परिव्वएज्जा) इस प्रकार समझता हुआ तत्त्वदर्शी पुरुष संयम पालनेवाले साधुओं के निकट दीक्षा धारण करे ।
भावार्थ- इस जगत् में छोटे शरीरवाले भी प्राणी हैं और बड़े शरीरवाले भी प्राणी हैं, इन प्राणियों को अपने समान समझकर तत्त्वदर्शी पुरुष संयम पालनेवाले साधुओं के निकट जाकर दीक्षा ग्रहण करे ।
टीका - ये केचन 'डहरे'त्ति लघवः कुन्थ्वादयः सूक्ष्मा वा, ते सर्वेऽपि प्राणाः-प्राणिनः ये च वृद्धा:बादरशरीरिणस्तान्सर्वानप्यात्मतुल्यान्-आत्मवत्पश्यति-सर्वस्मिन्नपि लोके यावत्प्रमाणं मम तावदेव कुन्थोरपि, यथा वा मम दुःखमनभिमतमेव सर्वलोकस्यापि, सर्वेषामपि प्राणिनां दुःखमुत्पद्यते, दुःखाद्वोद्विजन्ति, तथा चागमः-"पुढविकाए णं भंते ! अकंते समाणे केरिसयं वेयणं वेएइ !" इत्याद्याः सूत्रालापकाः, इति मत्वा तेऽपि नाक्रमितव्या-न संघट्टनीयाः, इत्येवं यः पश्यति स पश्यति । तथा लोकमिमं महान्तमुत्प्रेक्षते, षड्जीवसूक्ष्मबादरभैदैराकुलत्वान्महान्तं, यदिवाऽनाद्यनिधनत्वान्महान् लोकः, तथाहि-भव्या अपि केचन सर्वेणापि कालेन न सेत्स्यन्तीति, यद्यपि द्रव्यतः षड्द्रव्यात्मकत्वात् क्षेत्रतश्चतुर्दशरज्जुप्रमाणतया सावधिको लोकस्तथापि कालतो भावतश्चानाद्यनिधनत्वात्पर्यायाणां चानन्तत्वान्महान् लोकस्तमुत्प्रेक्षत इति । एवं च लोकमुत्प्रेक्षमाणो बुद्धः-अवगततत्त्वः सर्वाणि प्राणिस्थानान्यशाश्वतानि, तथा नात्रापसदे संसारे सुखलेशोऽप्यस्तीत्येवं मन्यमानः 'अप्रमत्तेषु' संयमानुष्ठायिषु यतिषु मध्ये तथाभूत एव परिः-समन्ताद् व्रजेत् परिव्रजेत्, यदिवा बुद्धः सन् 'प्रमत्तेषु' गृहस्थेषु अप्रमत्तः सन् संयमानुष्ठाने परिव्रजेदिति ॥१८॥ किञ्च -
टीकार्थ - जो छोटे-छोटे कुन्थु आदि हैं अथवा जो सूक्ष्म हैं, वे सभी प्राणधारी हैं तथा जो बादर शरीरवाले हैं, वे भी प्राणी हैं। अतः तत्त्वदर्शी पुरुष इन सबों को अपने समान देखते हैं । वे समझते हैं कि समस्त लोक में जितना प्रमाणवाला मेरा जीव है, उतना ही दूसरे प्राणियों का कुन्थु आदि का भी है । तथा जिस प्रकार मुझे दुःख अच्छा नहीं लगता, इसी तरह सभी प्राणियों को दुःख अच्छा नहीं लगता, सभी को दुःख उत्पन्न होता है
और सभी दुःख से घबराते हैं । अतः एव आगम कहता है कि-"पुढवी कारणं भंते !" अर्थात् हे भदन्त! पृथिवीकाय का जीव दुःख से पीड़ित होता हुआ कैसा दुःख अनुभव करता है ?(उत्तर-हे गौतम ! जैसे हम लोग दीनता के साथ दुःख भोगते हैं, इसी तरह वह भी भोगता है) इत्यादि सूत्रों के कथन को मानकर किसी जीव पर आक्रमण नहीं करना चाहिए । जो ऐसा देखता है, वही पुरुष यथार्थ देखता है । तथा तत्त्वदर्शी पुरुष इस लोक को महान् देखता है क्योंकि छः प्रकार के जीवों के सूक्ष्म और बादर भेदों से भरा हुआ होने के कारण यह लोक महान् है अथवा अनादि और अनन्त होने के कारण यह लोक महान् है, क्योंकि कोई-कोई भव्य पुरुष भी सब कालों में भी सिद्ध नहीं होंगे। यद्यपि द्रव्य से यह लोक षट् द्रव्यात्मक होने से तथा क्षेत्र से चौदह रज्जुप्रमाण होने से अवधि के सहित है तथापि काल और भाव से आदि तथा अन्त रहित होने के कारण एवं पर्याय ? अनन्त होने के कारण यह महान् है । अतः तत्त्वदर्शी इसे महान् देखते हैं । इस प्रकार लोक को देखता हुआ तत्वदर्शी पुरुष,"सभी प्राणियों के स्थान अनित्य हैं, तथा दुःख से भरे हुए इस संसार में सुख का लेश भी नहीं है" ऐसा मानता हुआ संयम पालन करनेवाले साधुओं के पास जाकर साधु बनकर विचरे अथवा गृहस्थावस्था में प्रमाद न करता हुआ संयम का अनुष्ठान करे ॥१८॥
1. संबन्धे षष्ठी अपिना देशादिव्यवच्छेदः। 2. उपचरितसर्वत्वव्यवच्छेदाय, भिन्नं वा वाक्यमेतत् । 3. पृथ्वीकायिको भदन्त । आक्रान्तः सन् कीदृशी वेदनां वेदयति ? | 4. र्वाणि स्थाना० प्र० ।
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