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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १६-१७ श्रीसमवसरणाध्ययनम् ते तीयउप्पन्नमणागयाइं, लोगस्स जाणंति तहागयाई । णेतारो अन्नेसि अणन्नणेया, बुद्धा हु ते अंतकडा भवंति ॥१६॥ छाया - तेऽतीतोत्पन्नानागतानि लोकस्य जानन्ति तथागतानि । नेतारोऽन्येषामनन्यनेयाः, बुद्धाचतेऽन्तकरा भवन्ति । अन्वयार्थ - (ते लोगस्स तीयउप्पन्नमणागयाई तहागयाई जाणंति) वे वीतराग पुरुष जीवों के भूत, वर्तमान और भविष्य वृत्तान्तों को यथार्थरूप से जानते हैं (अन्नेसि नेतारो अणनणेया) वे दूसरे जीवों के नेता हैं परन्तु उनका कोई नेता नहीं है (ते बुद्धा अंतकडा भवंति) वे ज्ञानी पुरुष संसार का अन्त करते हैं। भावार्थ - वे वीतराग पुरुष जीवों के भूत, वर्तमान और भविष्य वृत्तान्तों को ठीक-ठीक जानते हैं, वे सबके नेता हैं परन्तु उनका कोई नेता नहीं हैं, वे जीव संसार का अन्त करते हैं। टीका - 'ते' वीतरागा अल्पकषाया वा 'लोकस्य' पञ्चास्तिकायात्मकस्य प्राणिलोकस्य वाऽतीतानिअन्यजन्माचरितानि उत्पन्नानि-वर्तमानावस्थायीनि अनागतानि-च भवान्तरभावीनि सुख-दुःखादीनि 'तथागतानि' यथैव स्थितानि तथैव अवितथं जानन्ति, न विभङ्गज्ञानिन इव विपरीतं पश्यन्ति, तथाह्यागमः-1"अणगारे णं भंते ! माई मिच्छादिट्ठी रायगिहे णयरे समोहए वाणारसीए नयरीए रूवाई जाणइ पासइ?, जाव से से दंसणे विवज्जासे भवती" त्यादि, ते चातीतानागतवर्तमानज्ञानिनः प्रत्यक्षज्ञानिनश्चतुदर्शपूर्वविदो वा परोक्षज्ञानिन: 'अन्येषां' संसारोत्तितीप्रूणां भव्यानां मोक्षं प्रति नेतारः सदुपदेशं वा प्रत्युपदेष्टारो भवन्ति, न च ते स्वयम्बुद्धत्वादन्येन नीयन्ते- तत्त्वावबोधं कार्य (धवन्तः क्रिय)न्त इत्यनन्यनेयाः, हिताहितप्राप्तिपरिहारं प्रति नान्यस्तेषां नेता विद्यत इति भावः । ते च 'बुद्धाः' स्वयंबुद्धास्तीर्थकरगणधरादयः, हुशब्दश्चशब्दार्थे विशेषणे 4वा, तथा च प्रदर्शित एव, ते च भवान्तकराः संसारोपादानभूतस्य वा कर्मणोऽन्तकरा भवन्तीति ।।१६।। टीकार्थ - वे पुरुष वीतराग होते हैं अथवा वे अल्पकषायी होते हैं, वे पञ्चास्तिकायात्मक इस प्राणि लोक के पूर्वजन्म के तथा वर्तमान और भविष्य जन्म में होनेवाले सुख दुःखों को जानते हैं । वे विभङ्गज्ञानी की तरह विपरीत रूप से नहीं किन्तु जिसका जैसा सुख दुःख आदि है, उसको वे वैसा ही देखते हैं । अतः एव आगम कहता है कि-हे भदन्त ! मायी मिथ्यादृष्टि अनगार राजगृह नगर में रहता हुआ काशी के पदार्थों को जानता है या देखता है ? (उ०) देखता है परन्तु कुछ विपरीत देखता है। परन्तु उत्तम साधु भूत, भविष्य और वर्तमान को ठीक ठीक जाननेवाले हैं। वे केवलज्ञानी अथवा चौदह पूर्व को जाननेवाले परोक्षज्ञानी संसार को पार करना चाहते हुए दूसरे भव्य जीवों को मोक्ष में पहुँचा देते हैं अथवा वे उन्हें सदुपदेश करते हैं, वे स्वयंबुद्ध होते हैं, इसलिए उन्हें कोई दूसरा पुरुष तत्त्वज्ञान नहीं कराता है, अतः हित की प्राप्ति और अहित के त्याग के विषय में उनका कोई नेता नहीं है, यह भाव है। वे स्वयम्बुद्ध तीर्थङ्कर और गणधर आदि (यहां हु शब्द च शब्द के अर्थ में है अथवा विशेषणार्थक है, सो दिखा दिया गया है) संसार का अथवा संसार के कारण रूप कर्मों का अन्त करते हैं ॥१६॥ - यावदद्यापि भवान्तं न कुर्वन्ति तावत्प्रतिषेध्यमंशं दर्शयितुमाह - जब तक वे मोक्ष में नहीं जाते हैं तब तक वे पाप नहीं करते हैं, यह दिखाने के लिए शास्त्रकार कहते हैंते णेव कुव्वंति ण कारवंति, भूताहिसंकाइ दुगंछमाणा । सया जता विप्पणमंति धीरा, विण्णत्ति(ण्णाय) धीराय हवंति एगे ॥१७॥ 1. अनगारो भदन्त ! मायी मिथ्यादृष्टिः राजगृहे नगरे समवहतः वाराणस्यां नगर्या रूपाणि जानाति पश्यति ?, यावत्स तस्य दर्शनविपर्यासो भवति। 2. तदा स्वयं पदार्थानां ज्ञातारस्ते इति स्वयमित्यादि । 3. तत्त्वावबोधकार्य त इत्य० प्र०। 4. च प्र०। ५२९
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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