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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १५
श्रीसमवसरणाध्ययनम् छाया - न कर्मणा कर्म क्षपयन्ति बाला अकर्मणा कर्म क्षपयन्ति धीराः ।
मेधाविनो लोभमयादतीताः सन्तोषिणो न प्रकुर्वन्ति पापम् ॥ अन्वयार्थ - (बाला कम्मुणा कम्म न खति) अज्ञानी जीव, पापकर्म करने के कारण अपने कर्मो का क्षपण नहीं कर सकते हैं (धीरा अकम्मुणा कम्म खति) परन्तु धीर पुरुष आश्रवों को रोक कर पाप का क्षपण करते हैं (मेहाविणो लोभमयावतीता) बुद्धिमान् पुरुष लोभ से दूर रहते हैं (संतोसिणो पावं नो पकरेंति) और वे संतोषी होकर पाप कर्म नहीं करते हैं।
भावार्थ- मुर्ख जीव अशुभ कर्म करके अपने पापों का नाश नहीं कर सकते । परन्तु धीर पुरुष अशुभ कर्मों को त्यागकर अपने कर्मों का क्षपण करते हैं। बुद्धिमान् पुरुष लोभ से दूर रहते हैं और वे सन्तोषी होकर पाप कर्म नहीं करते।
टीका - ते एवमसत्समवसरणाश्रिता मिथ्यात्वादिभिर्दोषैरभिभूताः सावद्येतरविशेषानभिज्ञाः सन्तः कर्मक्षपणार्थमभ्युद्यता निर्विवेकतया सावद्यमेव कर्म कुर्वते, न च "कर्मणा" सावद्यारम्भेण "कर्म" पापं "क्षपयन्ति" व्यपनयन्ति, अज्ञानत्वाद्वाला इव बालास्त इति, यथा च कर्म क्षिप्यते तथा दर्शयति - "अकर्मणा तु" आश्रवनिरोधेन तु अन्तशः शैलेश्यवस्थायां कर्म क्षपयन्ति "वीराः" महासत्त्वाः सद्वैद्या इव चिकित्सयाऽऽमयानिति । मेधा - प्रज्ञा सा विद्यते येषां ते मेधाविनः - हिताहितप्राप्तिपरिहाराभिज्ञा लोभमयं- परिग्रहमेवातीताः परिग्रहातिक्रमाल्लोभातीताः-वीतरागा इत्यर्थः, 'सन्तोषिणः' येन केनचित्सन्तुष्टा अवीतरागा अपीति, यदिवा यत एवातीतलोभा अत एव सन्तोषिण इति, त एवंभूता भगवन्तः ‘पापम्' असदनुष्ठानापादितं कर्म 'न कुर्वन्ति' नाददति, क्वचित्पाठः, 'लोभभयादतीता' लोभश्च. भयं च समाहारद्वन्द्वः, लोभाद्वा भयं तस्मादतीताः सन्तोषिण इति, न पुनरुक्ताशङ्का विधेयेति, अतो (विधेयाऽत्र यतो) लोभातीतत्वेन प्रतिषेधांशो दर्शितः, सन्तोषिण इत्यनेन च विध्यंश इति, यदिवा लोभातीतग्रहणेन समस्तलोभाभावः संतोषिण इत्येनन तु सत्यप्यवीतरागत्वे नोत्कटलोभा इति लोभाभावं दर्शयन्नपरकषायेभ्यो लोभस्य प्राधान्यमाह, ये च लोभातीतास्तेऽवश्यं पापं न कुर्वन्ति इति स्थितम् ॥१५।।
टीकार्थ - मूर्ख जीव, असत् दर्शन का आश्रय लेकर मिथ्यात्व आदि दोषों से हारे हुए सावध और निरवद्य कर्म के भेद को नहीं जानते, इसलिए कर्म को क्षपण करने के लिए उद्यत होकर वे निर्विवेकता के कारण सावध कर्म ही करते हैं । अतः सावध आरम्भ के कारण वे अपने कर्मों का क्षपण कर नहीं सकते । वे अज्ञानी होने के कारण बालक के समान हैं । जिस प्रकार कर्म का क्षपण होता है, उसे बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं
त्सा के द्वारा रोगों का क्षपण करता है. इसी तरह वीर पुरुष आश्रवों को रोककर अंतशः शैलेशी अवस्था में कर्मो का क्षपण करते हैं। मेधा यानी प्रज्ञा जिनमें विद्यमान है, वे हित की प्राप्ति और अहित के त्याग के जाननेवाले परिग्रह का त्याग कर देते हैं और परिग्रह को त्याग कर लोभ का उल्लङ्घन करते हैं, वे पुरुष वीतराग हैं, यह अर्थ है, अथवा वे वीतराग न होने पर भी जिस किसी वस्तु से ही सन्तोष करते हैं अथवा वे लोभ को उल्लङ्घन कर गये हैं, इसलिए सन्तोषी हैं । ऐसे पुरुष असत् अनुष्ठान से उत्पन्न पाप कर्म नहीं करते । कहीं "लोभभयादतीताः" यह पाठ मिलता है । इसमें "लोभश्च भयश्च" यह विग्रह करना चाहिए । अथवा "लोभाद् भयं" यह विग्रह करना चाहिए । इसका अर्थ यह है कि वे महात्मा पुरुष लोभ और भय को उल्लङ्घन किये हुए हैं, इसलिए वे सन्तोषी हैं । इस प्रकार अर्थ करने से यहाँ पुनरुक्ति की शङ्का नहीं करनी चाहिए, क्योंकि-लोभ को उल्लङ्घन करना बताकर यहां लोभ का निषेध दिखाया गया है और सन्तोषी कहकर विधि अंश बताया है। अथवा लोभ को उल्लङ्घन करना कहकर यहां समस्त लोभों का अभाव कहा है और सन्तोषी कह कर वीतराग न होने पर भी उत्कट लोभ से रहित कहा गया है । इस प्रकार लोभ का अभाव दिखाते हुए शास्त्रकार दूसरे कषायों से लोभ की प्रधानता बताते हैं । सिद्धान्त यह हुआ कि जो पुरुष लोभ को उल्लङ्घन कर गये हैं, वे पाप नहीं करते ।।१५।।
- ये च लोभातीतास्ते किम्भूता भवन्ति इत्याह - - जो पुरुष लोभ से दूर हैं, वे कैसे होते हैं ? यह शास्त्रकार बताते हैं -
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