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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १४-१५
महु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दुमोक्खं । जंसी विसन्ना विसयंगणाहिं, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरंति
छाया
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यमाहुरोघं सलिलमपारगं, जानीहि भवगहनं दुर्मोक्षम् । यस्मिन् विषण्णाः विषयाङ्गनाभिर्द्विधाऽपि लोकमनुसञ्चरन्ति ॥
श्रीसमवसरणाध्ययनम्
अन्वयार्थ - (जं ओहं सलिलं अपारगं आहु) जिस संसार को स्वयंभूरमण समुद्र के जल के समान अपार कहा है ( भवगहणं दुमोक्खं जाणाहि ) उस गहन संसार को दुर्मोक्ष जानो । (जंसी विसयंगणाहिं विसन्ना) जिस संसार में विषय और स्त्रियों में आसक्त जीव (दुहओवि लोयं अणुसंचरंति) स्थावर और जङ्गम दोनों ही प्रकार से भ्रमण करते हैं ।
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भावार्थ - इस संसार को जिनेश्वरदेव ने स्वयम्भू रमण समुद्र के समान दुस्तर कहा है, अतः इस गहन संसार को तुम दुर्मोक्ष समझो । विषय तथा स्त्री में आसक्त जीव इस जगत् में बार - बार स्थावर और जङ्गम जातियों में भ्रमण करते रहते हैं ।
टीका "यं" संसारसागरम् आहुः - उक्तवन्तस्तीर्थकरगणधरादयस्तद्विदः, कथमाहुः ? स्वयम्भूरमणसलिलौघवदपारं, यथा स्वयम्भूरमणसलिलौघो न केनचिज्जलचरेण स्थलचरेण वा लङ्घयितुं शक्यते एवमयमपि संसारसागरः सम्यग्दर्शनमन्तरेण लङ्घयितुं न शक्यत इति दर्शयति - "जानीहि" अवंगच्छ णमिति वाक्यालङ्कारे, भवगहनमिदं चतुरशीतियोनिलक्षप्रमाणं यथासम्भवं सङ्घयेयासङ्ख्येयानन्तस्थितिकं दुःखेन मुच्यत इति दुर्मोक्षं दुरुत्तरमस्तिवादिनामपि, किं पुनर्नास्तिकानाम् ?, पुनरपि भवगहनोपलक्षितं संसारमेव विशिनष्टि "यत्र" यस्मिन् संसारे सावद्यकर्मानुष्ठायिनः कुमार्गपतिता असत्समवसरणग्राहिणो “विषण्णा" अवसक्ता, विषयप्रधाना अङ्गना विषयाङ्गनास्ताभिः, यदिवा विषयाश्चाङ्गनाश्च विषयाङ्गनास्ताभिर्वशीकृताः सर्वत्र सद्नुष्ठानेऽवसीदन्ति, त एवं विषयाङ्गनादिके पङ्के विषण्णा “द्विधाऽपि " आकाशाश्रितं पृथिव्याश्रितं च लोकं, यदिवा स्थावरजङ्गमलोकं "अनुसंचरन्ति" गच्छन्ति, यदिवा – “द्विधाऽपि'' इति लिङ्गमात्रप्रव्रज्ययाऽविरत्या (च) रागद्वेषाभ्यां वा लोकं - चतुर्दशरज्ज्वात्मकं स्वकृतकर्मप्रेरिता "अनुसञ्चरन्ति" बम्भ्रम्यन्त इति ||१४|| किञ्चान्यत् -
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न कम्मुणा कम्म खर्वेति बाला, अकम्मुणा कम्म खवेंति धीरा । मेधाविणो लोभमयावतीता, संतोसिणो नो पकरेंति पाव
टीकार्थ संसार का स्वरूप जाननेवाले तीर्थङ्कर और गणधर आदि ने संसार का स्वरूप बताया है । कैसा स्वरूप बताया है ? स्वयम्भूरमण समुद्र के जलं समूह के समान अंपार बताया है। जैसे स्वयम्भूरमण समुद्र के जल समूह का न कोई जलचर लङ्घन कर सकता है और न स्थलचर उल्लङ्घन कर सकता है, इसी तरह यह संसारसागर भी सम्यग्दर्शन के बिना लङ्घन नहीं किया जा सकता है। यही शास्त्रकार दिखाते हैं ऐसा जानो, णं शब्द वाक्य की शोभा के लिए आया है। यह संसाररूपी गहन (वन) चौरासी लाख योनि प्रमाणवाला है और यह यथासम्भव संख्यात - असंख्यात और अनन्तकाल की स्थितिवाला है, यह आस्तिक जीवों से भी दुस्तर है फिर नास्तिकों की तो बात ही क्या है ? । अब शास्त्रकार गहन भवों से युक्त संसार की फिर विशेषता बताते हैं जो पुरुष इस संसार में सावद्य कर्म का अनुष्ठान करते हैं तथा कुमार्ग में पड़े हुए हैं और असत् दर्शन को ग्रहण करनेवाले हैं तथा जिनमें विषयप्रधान है ऐसी अङ्गना यानी स्त्रियों में आसक्त हैं अथवा विषय और स्त्री के वशीभूत होकर कभी भी उत्तम अनुष्ठान नहीं करते हैं, वे विषयसुख और स्त्री रूप कीचड़ में फँसकर आकाश के लोको में तथा पृथिवी लोक में बार-बार जन्मते और मरते हैं अथवा वे लिङ्गमात्र से प्रव्रज्याधारी होने से और विरति के न होने से तथा राग और द्वेष से युक्त होने के कारण अपने कर्मों से प्रेरित होकर चौदह रज्जुस्वरूप इस लोक में बार- बार भ्रमण करते हैं ||१४||
।।१५।।
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