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सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १३
श्रीसमवसरणाध्ययनम् ज्यों ज्यों मिथ्यादर्शन की वृद्धि होती है त्यों-त्यों संसार शाश्वत होता जाता है, क्योंकि तीर्थकर और आहारक को छोड़कर सभी कर्मबन्धों का उसमें सम्भव है, क्योंकि महारम्भ आदि चार स्थानों के द्वारा जीव जब तक नरक की आयु बाँधते हैं तब तक संसार का उच्छेद नहीं होता है अथवा ज्यों-ज्यों राग-द्वेष बढ़ता है, त्यों-त्यों संसार भी शाश्वत होता जाता है, यह तीर्थङ्करों ने कहा है । अतः ज्यों-ज्यों कर्म का उपचय होता जाता है, त्यों-त्यों संसार की वृद्धि होती जाती है, यह जानना चाहिए । तथा दुष्ट मन, वाणी और काय की वृद्धि होने पर संसार की वृद्धि होती है, यह भी जानना चाहिए । इस प्रकार उस संसार की वृद्धि होती है, जिसमें नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और अमरभेद से प्राणी निवास करते हैं, हे मनुष्यों तुम यह जानो । यहाँ मनुष्यों को ही सम्बोधन इसलिए किया है कि-प्रायः वे ही उपदेश के योग्य होते हैं ॥१२॥
- लेशतो जन्तुभेदप्रदर्शनद्वारेण तत्पर्यटनमाह
अब शास्त्रकार अंश से प्राणियों का भेद बताकर उनका संसार में भ्रमण बताते हैं
जे रक्खसा वा जमलोइया वा, जे वा सुरा गंधव्वा य काया । आगासगामी य पुढोसिया जे, पुणो पुणो विप्परियासुर्वेंति
छाया
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ये राक्षसा वा यमलौकिका वा, ये वा सुराः गन्धर्वाश्च कायाः | आकाशगामिनश्च पृथिव्याश्रितांश्च पुनः पुनो विपर्यासमुपयान्ति ॥
।।१३।।
अन्वयार्थ - (जे रक्खसा वा जमलोइया वा) जो राक्षस हैं तथा जो यमपुरी में निवास करते हैं (जे वा सुरा गंधव्वा य काया) तथा जो देवता हैं और जो गन्धर्व हैं (आगासगामी य पुढोसिया जे) तथा जो आकाशगामी और जो पृथिवी पर रहते हैं (पुणो पुणो विप्परियासुर्वेति) वे बार बार भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण करते रहते हैं ।
भावार्थ - राक्षस, यमपुरवासी, देवता गन्धर्व, आकाशगामी तथा पृथिवी पर रहनेवाले प्राणी सभी बार-बार भिन्न भिन्न गतियों में भ्रमण करते हैं ।
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टीका - 'ये' केचन व्यन्तरभेदा राक्षसात्मानः, तद्ग्रहणाच्च सर्वेऽपि व्यन्तरा गृह्यन्ते तथा यमलौकिकात्मानः, अ(म्बाम्ब)म्बर्ष्यादयस्तदुपलक्षणात्सर्वे भवनपतयः तथा ये च 'सुराः ' सौधर्मादिवैमानिकाः चशब्दाज्ज्योतिष्काः सूर्यादय:, तथा ये 'गान्धर्वा' विद्याधरा व्यन्तरविशेषा वा, तद्ग्रहणं च प्राधान्यख्यापनार्थं, तथा 'कायाः' पृथिवीकायादयः asपि गृह्यन्त इति । पुनरन्येन प्रकारेण सत्त्वान्संजिघृक्षुराह ये केचन 'आकाशगामिनः' संप्राप्ताकाशगमन - लब्धयश्चतुर्विधदेवनिकायविद्याधरपक्षिवायवः, तथा ये च 'पृथिव्याश्रिताः' पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियास्ते सर्वेऽपि स्वकृतकर्मभिः पुनः पुनर्विविधम्- अनेकप्रकारं पर्यासं-परिक्षेपमरहट्टघटीन्यायेन परिभ्रमणमुप - सामीप्येन यान्ति - गच्छन्तीति ॥१३॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ - व्यन्तर जाति के भेद में जो राक्षस हैं, उनके ग्रहण से सभी व्यन्तरों का यहां ग्रहण करना चाहिए तथा यमलोक में रहनेवाले जो अम्ब, और अम्बर्षि आदि हैं, उनके उपलक्षण होने से सभी भवनपतियों का तथा सुर पद से सौधर्म आदि वैमानिक देव समझना चाहिए एवं च शब्द से सूर्य्य आदि ज्योतिष्क देवताओं को जानना चाहिए तथा गन्धर्व पद से विद्याधर अथवा कोई व्यन्तर की जूदी जाति जाननी चाहिए, इस भेद को अलग लेने से, इसे प्रधान समझना चाहिए। तथा काय शब्द से पृथिवीकाय आदि छः ही कार्यों का ग्रहण है । फिर शास्त्रकार दूसरे प्रकार से जीवों का भेद बताते हैं-जो आकाश में उड़नेवाले हैं अर्थात् जिनमें आकाश में उड़ने की शक्ति है, वे चार प्रकार के देवता, विद्याधर, पक्षी और वायु हैं । तथा पृथिवी के आश्रय से रहनेवाले जो पृथिवी, जल, तेज, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय प्राणी हैं, वे सभी अपने किये हुए कर्म के अनुसार भिन्न भिन्न रूपों में अरहट यन्त्र की तरह संसार में भ्रमण करते हैं ||१३||