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________________ सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा १२ श्रीसमवसरणाध्ययनम् मात्र है। तथा वे कहते हैं कि ज्ञान और क्रिया दोनों से ही मोक्ष प्राप्त होता है परन्तु ज्ञान निरपेक्ष क्रिया से अथवा क्रिया निरपेक्ष ज्ञान से मोक्ष नहीं होता है। अतः एव तीर्थंकर की स्तुति करते हुए जैनाचार्य ने कहा है कि उत्तम ज्ञान के बिना क्रिया निष्फल है तथा उत्तम ज्ञान की सम्पद् भी क्रिया के बिना व्यर्थ है, अतः आपने केवल क्रिया और केवल, ज्ञान को क्लेशसमूह की शान्ति के विषय में निरर्थक ठहरा कर जगत् को मङ्गल मार्ग बताया है ॥११॥ ते चक्खु लोगंसिह णायगा उ, मग्गाणुसासंति हितं पयाणं । तहा तहा सासयमाह लोए,जंसी पया माणव! संपगाढा ॥१२॥ छाया - ते चक्षुलॊकस्येह नायकास्तु मार्गमनुशासति हितं प्रजानाम् । ___ तथा तथा शाश्वतमाहुलॊकमस्मिन् प्रजाः मानव संप्रगाढाः ।। अन्वयार्थ - (ते लोगसि चक्खु) इस लोक में वे तीर्थङ्कर आदि नेत्र के समान हैं । (णायगा उ) तथा वे नायक यानी प्रधान हैं । (पयाणं हितं मग्गाणुसासंति) वे प्रजाओं को कल्याण का मार्ग बताते हैं । (तहा तहा लोए सासयमाहु) तथा ज्यों-ज्यों मिथ्यात्व बढ़ता है त्यों-त्यों संसार मजबूत होता जाता है (जंसी पया संपगाढा) जिसमें प्रजा निवास करती है, यह वे कहते हैं। भावार्थ - वे तीर्थकर आदि जगत् के नेत्र के समान हैं, वे इस लोक में सबसे श्रेष्ठ हैं, वे प्रजाओं को कल्याणमार्ग की शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि-ज्यों-ज्यों मिथ्यात्व बढ़ता है, त्यों-त्यों संसार मजबूत होता जाता है, जिस संसार में प्रजा निवास करती हैं। टीका - 'ते' तीर्थकरगणधरादयोऽतिशयज्ञानिनोऽस्मिन् लोके चक्षुरिव चक्षुर्वर्तन्ते, यथा हि चक्षुर्योग्यदेशावस्थितान् पदार्थान् परिच्छिनत्ति एवं तेऽपि लोकस्य यथावस्थितपदार्थाविष्करणं कारयन्ति, तथाऽस्मिन् लोके ते नायकाः-प्रधानाः, तुशब्दो विशेषणे, सदुपदेशदानतो नायका इति, एतदेवाह-'मार्ग' ज्ञानादिकं मोक्षमार्ग 'अनुशासति' कथयन्ति प्रजना-प्रजायन्त इति प्रजा:-प्राणिनस्तेषां, किम्भूतं ? हितं, सद्गतिप्रापकमनर्थनिवारकं च, किञ्च-चतुर्दशरज्ज्वात्मके लोके पञ्चास्तिकायात्मके वा येन येन प्रकारेण द्रव्यास्तिकनयाभिप्रायेण यद्वस्तु शाश्वतं तत्तथा 'त आहुः' उक्तवन्तः, यदिवा लोकोऽयं प्राणिगणः संसारान्तर्वर्ती यथा यथा शाश्वतो भवति तथा तथैवाहुः, तद्यथा-यथा यथा मिथ्यादर्शनाभिवृद्धिस्तथा तथा शाश्वतो लोकः, तथाहि-तत्र तीर्थकराहारकवाः सर्व एव कर्मबन्धाः सम्भाव्यन्त इति, तथा च महारम्भादिभिश्चतुर्भिः स्थानैर्जीवा नरकायुष्कं यावनिवर्तयन्ति तावत्संसारानुच्छेद इति, अथवा यथा यथा रागद्वेषादिवृद्धिस्तथा तथा संसारोऽपि शाश्वत इत्याहुः, यथा यथा च कर्मोपचयमात्रा तथा तथैव संसाराभिवृद्धिरिति । दुष्टमनोवाक्कायाभिवृद्धौ वा संसाराभिवृद्धरवगन्तव्या, तदेवं संसारस्याभिवृद्धिर्भवति। 'यस्मिंश्च' संसारे, प्रजायन्त इति 'प्रजाः' जन्तवः, हे मानव ?, मनुष्याणामेव प्रायश उपदेशार्हत्वान्मानवग्रहणं, सम्यग्नारकतिर्यनरामरभेदेन 'प्रगाढाः' प्रकर्षण व्यवस्थिता इति ॥१२॥ टीकार्थ - अतिशय ज्ञानी वे तीर्थंकर और गणधर आदि इस लोक के नेत्र के समान हैं । जैसे योग्य देश में स्थित पदार्थ को नेत्र प्रकाश करता है, इसी तरह वे भी लोक के पदार्थ के यथार्थ स्वरूप का प्रकाश करते हैं तथा वे इस लोक में सबसे प्रधान हैं । तु शब्द विशेषणार्थक है, इसलिए उत्तम उपदेश देने के कारण वे सबसे श्रेष्ठ है, यह आशय है । वे प्रजाओं को मोक्षमार्ग का उपदेश करते हैं। वह मार्ग सद्गति को प्राप्त करानेवाला और अनर्थ का निवारण करनेवाला है। तथा चौदह रज्जुस्वरूप अथवा पाँच अस्तिकाय स्वरूप इस लोक में जिस प्रकार से (अर्थात् द्रव्यास्तिक नय के अनुसार) जो वस्तु शाश्वत है, उसे वे वैसा ही कहते हैं । अथवा इस संसार के प्राणिगण जिस-जिस प्रकार से संसार में स्थिर होते जाते हैं, उसे भी उन्होंने बताया है। उन्होंने कहा है कि ५२५
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
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