SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 240
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सूत्रकृताङ्गे भाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ११ - श्रीसमवसरणाध्ययनम् कनिष्ठ और श्रेष्ठ भेद से छः भेद होते हैं, इनके कथन में भी फर्क देखा जाता है, यह बताने के लिए शास्त्रकार कहते हैं - यहां “कोई इत्यादि पद छान्दस होने के कारण अथवा प्राकृत की शैली से नपुंसक के स्थान में पुंलिङ्ग हुए हैं । कोई निमित्त सच्चे और कोई झूठे होते हैं तथा किसी निमित्तवादी की बुद्धि की कमी के कारण तथा उस प्रकार का क्षयोपशम न होने से उसके निमित्तज्ञान में फर्क देखा जाता है। आर्हतों (जैन निमित्तज्ञों) के निमित्तज्ञान में भी फर्क पड़ जाता है फिर दूसरे मतवालों के निमित्तज्ञान में फर्क पड़ना क्या बड़ी बात है ? | इस प्रकार निमित्तशास्त्र के ज्ञान में फर्क पड़ना देखकर अक्रियावादी विद्या को सत्य न मानते हुए, निमित्तशास्त्र को सत्य और झूठ दोनों मानकर श्रुतज्ञान के त्याग का उपदेश करते हैं । अथवा वे क्रिया को निरर्थक मानकर ज्ञान मात्र से सब कर्मों का नाशरूप मोक्ष बतलाते हैं। कहीं कहीं चतुर्थ चरण का पाठ इस प्रकार मिलता है" जाणासु लोगंसि वयंति मंदा" इसका अर्थ यह है वे अक्रियावादी समझते हैं कि विद्या पढ़े बिना ही हम लोक को अथवा लोक के पदार्थो को जानते हैं, इस प्रकार वे मन्दबुद्धि कहते हैं। वे ज्योतिष् को सत्य नहीं मानते हैं। वे कहते हैं कि छींक होने पर भी जाते हुए किसी पुरुष के कार्य्य की सिद्धि देखी जाती है और अच्छे शकुन से जाते हुए भी किसी के कार्य्य की सिद्धि नहीं देखी जाती है, अतः निमित्त के बल से जो ज्योतिषी लोग फल बताते हैं, वे मिथ्यावादी हैं । इसका उत्तर देते हुए जैनाचार्य कहते कि यह बात नहीं हैं, अच्छी रीति से शास्त्र का अभ्यास किया हो और सोच विचारकर कहे तो उसमें फर्क नहीं पड़ता है । तथा ज्ञान के विचार में जो छ: भेद कहे गये हैं वे भेद, उन पुरुषों में क्षयोपशम की न्यूनता के कारण कहे गये हैं। प्रमाणाभास में फर्क पड़ने. से सच्चे प्रमाण में फर्क पड़ने की शङ्का करना युक्त नहीं है। रेतीले प्रदेशों में गीष्मऋतु में जल का प्रत्यक्ष मिथ्या होता है, इसलिए तालाब या गङ्गा आदि में सत्य जल के प्रत्यक्ष को मिथ्या कहना युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता। मशक में धूम भरकर उसका मुख बाँधकर कोई किसी जगह ले जाकर उसका मुख खोल दे तो उसमें धूम निकलता है परन्तु वह धूम उस मशक में अग्नि सिद्ध करने में समर्थ नहीं है, इसलिए रसोई घर से निकलता हुआ धूम अग्नि साधन करने में असमर्थ नहीं कहा जा सकता । कारण विचारकर जो कार्य्य किया जाता है, उसमें कदापि फर्क नहीं आता है, अतः प्रमाता पुरुष के प्रमाद से प्रमाण में दोष बताना ठीक नहीं है । इसी तरह भली भाँति विचारकर यदि निमित्तशास्त्र का फल कहा जाय तो उसमें भी कुछ फर्क नहीं होता है । छींक होने पर यात्रा करनेवाले के कार्य्य की सिद्धि दिखाकर तुम जो निमित्त शास्त्र के मिथ्या होने की शङ्का करते हो सो ठीक नहीं है क्योंकि - कार्य की शीघ्रता के कारण छींक होने पर भी जाते हुए पुरुष की जो कार्य की सिद्धि देखी जाती है, वह बीच में दूसरे शुभ निमित्तों के बल से हुई है, यह समझना चाहिए। शुभ निमित्त को लेकर यात्रा किये हुए पुरुष के कार्य की जो असिद्धि देखी जाती है, वह भी बीच में दूसरे अपशकुनों के बल से समझनी चाहिए। अत एव सुनते हैं कि- बुद्ध ने अपने शिष्यों को एक समय बुलाकर कहा कि- "इस देश में बारह वर्ष का अकाल पड़ेगा इसलिए तुम लोग दूसरे देशों में चले जाओ" बुद्ध का यह वचन सुनकर जब उनके शिष्य जाने लगे तब फिर उनको बुलाकर उन्होंने कहा कि- "अब तुम लोग दूसरे देशों में न जाओ क्योंकि आज ही यहाँ एक महाशक्तिमान् पुण्यशाली पुरुष का जन्म अवतरण हुआ है, इसलिए उसके प्रभाव से सुभिक्ष होगा ।" इस बुद्ध की उक्ति से स्पष्ट प्रतीत होता है कि पहले के शकुन से विपरीत शकुन यदि पीछे से होता है तो पहले शकुन के फल में फर्क होने की शङ्का होती है ॥१०॥ ५२२ - - अब शास्त्रकार क्रियावादी के मत को दूषित करने के लिए उनका मत बताते हैं ते एवमक्खति समिच्च लोगं, तहा तहा (गया) समणा माहणा य । सयं कडं णन्नकडं च दुक्खं, आहंसु विज्जाचरणं पमोक्खं छाया - त एवमाख्यान्ति समेत्य लोकं तथा तथा (गता) श्रमणा माहनाश्च । साम्प्रतं क्रियावादिमतं दुदूषयिषुस्तन्मतमाविष्कुर्वन्नाह - - ॥११॥
SR No.032700
Book TitleSutrakritanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages364
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy