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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ८
श्रीसमवसरणाध्ययनम् टीका - सर्वशून्यवादिनो ह्यक्रियावादिनः सर्वाध्यक्षामादित्योद्मनादिकामेव क्रियां तावनिरुन्धन्तीति दर्शयतिआदित्यो हि सर्वजनप्रतीतो जगत्प्रदीपकल्पो दिवसादिकालविभागकारी स एव तावन्न विद्यते, कुतस्तस्योद्गमनमस्तमयनं वा ?, यच्च जाज्वल्यमानं तेजोमण्डलं दृश्यते तद् भ्रान्तमतीनां द्विचन्द्रादिप्रतिभासमृगतृष्णिकाकल्पं वर्तते । तथा न चन्द्रमा वर्धते शुक्लपक्षे, नाप्यपरपक्षे प्रतिदिनमपहीयते, तथा "न सलिलानि" उदकानि "स्यन्दन्ते" पर्वतनिझरेभ्यो न स्रवन्ति । तथा वाताः सततगतयो न वान्ति । किं बहुनोक्तेन?, कृत्स्नोऽप्ययं लोको "वन्ध्यः" अर्थशून्यो “नियतो" निश्चितः अभावरूप इतियावत्, सर्वमिदं यदुपलभ्यते तन्मायास्वप्नेन्द्रजालकल्पमिति ॥७॥
टीकार्थ - सर्व शून्यतावादी अक्रियावादी, सर्वलोकप्रत्यक्ष जो सूर्य का उदय और अस्तरूप क्रिया है, उसका भी प्रतिषेध करते हैं। यही शास्त्रकार दिखलाते हैं - सूर्य सर्वजनप्रत्यक्ष और जगत् के दीपक के समान एवं दिन आदि काल का विभाग करनेवाला है, परन्तु सर्वशून्यतावादी के मत में जब कि वही नहीं है, तब उसके उदय और अस्त की तो बात ही क्या है?। सर्वशून्यतावादी कहते हैं कि आकाश में जो जलता हुआ तेजो मण्डल दिखाई देता है, वह भ्रान्तपुरुषों को दिखाई देता हुआ दो चन्द्र आदि तथा मृगतृष्णा के समान मिथ्या है । एवं चन्द्रमा शुक्लपक्ष में बढ़ता नहीं है और कृष्णपक्ष में प्रतिदिन घटता भी नहीं है । तथा जल, पर्वतों के झरनों से गिरता नहीं है एवं निरन्तर गति करनेवाला वायु भी नहीं चलता है । बहुत कहने की आवश्यकता नहीं है, यह समस्त विश्व अर्थशून्य और निश्चय अभावरूप है। इस जगत् में जो वस्तु उपलब्ध होती है, वह सब माया, स्वप्न और इन्द्रजाल के समान मिथ्या है। (यह सर्व शुन्यतावादी कहते हैं ) ॥७॥
- एतत्परिहतुकाम आह -
- अब शास्त्रकार सर्वशून्यतावादी के मत का खण्डन करने के लिए कहते हैं - जहाहि अंधे सह जोतिणावि, रूवाइ णो पस्सति हीणणेत्ते । संतंपि ते एवमकिरियवाई, किरियं ण पस्संति निरुद्धपन्ना
॥८॥ छाया - यथा ह्यन्धः सह ज्योतिषाऽपि रूपाणि न पश्यति हीननेत्रः ।
सतीमपि ते एवमक्रियावादिनः क्रियां न पश्यन्ति निरुद्धप्रज्ञाः ॥ अन्वयार्थ - (जहाहि अंधे सह जोतिणावि) जैसे अन्ध पुरुष ज्योति के साथ रहकर भी (हीणणेते रुवाइ णो पस्सति) नेत्रहीन होने के कारण रूप को नहीं देखता है (एवं निरुद्धपन्ना ते अकिरियवाई) इसी तरह बुद्धिहीन अक्रियावादी (संतपि किरियं ण पस्संति) विद्यमान क्रिया को भी नहीं देखते हैं।
भावार्थ - जैसे अन्ध मनुष्य दीपक के साथ रहता हुआ भी घटपटादि पदार्थों को नहीं देख सकता है, इसी तरह जिनके ज्ञान पर पर्दा पड़ा हुआ है, ऐसे अक्रियावादी विद्यमान घटपटादि पदार्थों को भी नहीं देख सकते हैं।
टीका - यथा ह्यन्धो - जात्यन्धः पश्चाद्वा "हीननेत्रः" अपगतचक्षुः "रूपाणि" घटपटादीनि "ज्योतिषापि" प्रदीपादिनापि सह वर्तमानो "न पश्यति" नोपलभते, एवं तेऽप्यक्रियावादिनः सदपि घटपटादिकं वस्तु तक्रियां चास्तित्वादिकां परिस्पन्दादिकां वा (क्रियां) न पश्यन्ति । किमिति ? , यतो निरुद्धा आच्छादिता ज्ञानावरणादिना कर्मणा प्रज्ञा - ज्ञानं येषां ते तथा, तथाहि - आगोपालाङ्गनादिप्रतीतः समस्तान्धकारक्षयकारी कमलाकरोद्घाटनपटीयानादित्योद्गमः प्रत्यहं भवन्नुपलक्ष्यते, तक्रिया च देशाद्देशान्तरावाप्त्याऽन्यत्र देवदत्तादौ प्रतीताऽनुमीयते । चन्द्रमाश्च प्रत्यहं क्षीयमाणः समस्त क्षयं यावत्पुनः कलाभिवृद्धया प्रवर्धमानः संपूर्णावस्था (स्थां)यां यावदध्यक्षेणैवोपलक्ष्यते । तथा सरितश्च प्रावृषि जलकल्लोलाविलाः स्यन्दमाना दृश्यन्ते । वायवश्च वान्तो वृक्षभङ्गकम्पादिभिरनुमीयन्ते । यच्चोक्तं भवता - सर्वमिदं मायास्वप्नेन्द्रजालकल्पमिति, तदसत्, यतः सर्वाभावे कस्यचिदमायारूपस्य सत्यस्याभावान्मायाया एवाभावः स्यात्, यश्च मायां प्रतिपादयेत् यस्य च प्रतिपाद्यते सर्वशून्यत्वे तयोरेवाभावात्कुतस्तद्वयवस्थितिरिति ?, तथा स्वप्नोऽपि
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