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सूत्रकृताङ्गेभाषानुवादसहिते द्वादशमध्ययने गाथा ७
श्रीसमवसरणाध्ययनम् "दानेन" अर्थात् दान देने से महान भोग प्राप्त होता है और शील पालन करने से देवगति प्राप्त होती है एवं शुभ भावना करने से मुक्ति होती है और तप करने से सब कुछ सिद्ध होता है तथा वे कहते हैं कि - "पृथिवी, जल, तेज और वायु ये चार ही भूत हैं, इनसे भिन्न सुख दुःख को भोगनेवाला कोई आत्मा नहीं है, तथा ये पदार्थ भी विचार न करने से सत्य प्रतीत होते है परन्तु परमार्थ दशा में मिथ्या हैं क्योंकि सभी पदार्थ, स्वप्न, इन्द्रजाल, मरुमरीचि का दो चन्द्रमा आदि के समान प्रतिभास रूप हैं एवं सभी पदार्थ क्षणिक और आत्मा से रहित हैं तथा सर्वशून्यता दृष्टि से मुक्ति प्राप्त होती है और उसी मुक्ति की प्राप्ति के लिए शेष भावनायें की जाती हैं। इस प्रकार आत्मा को क्रिया रहित माननेवाले अक्रियावादी नाना प्रकार के शास्त्रों का कथन करते हैं । वस्तुतः ये लोग वस्तु स्वरूप को नहीं जानते हैं, अत एव इनके दर्शनों का आश्रय लेकर बहुत लोग अरहट की तरह अनन्त काल तक संसार में भ्रमण करते हैं । लोकायतिक सर्वशून्यतावाद मानते हैं परन्तु सर्वशून्य में कोई प्रमाण नहीं है, अत एव जैनाचार्यों ने कहा है कि- "तत्त्वानि" अर्थात् पदार्थ सब असत् हैं, यह बात युक्ति के बल से सिद्ध की जा सकती है परन्तु वह युक्ति भी यदि असत् है, तो किसके बल से पदार्थो की असत्ता सिद्ध की जायगी ? । यदि युक्ति को तुम सत्य मानो तब तो हमारा ही सिद्धान्त सिद्ध होता है, क्योंकि जैसे युक्ति सत्य है, उसी तरह सभी पदार्थ सत्य हैं । तथा चार्वाक एक प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, परन्तु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकिभूत और भविष्य काल में जो पिता और पुत्र के सम्बन्ध का व्यवहार लोक में होता है, वह केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माननेपर नहीं हो सकता है क्योंकि भूत और भविष्य प्रत्यक्ष के विषय नहीं है । केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण माननेपर जगत् के सभी व्यवहारों का उच्छेद हो जायगा, इसलिए अनुमान आदि प्रमाण भी मानने चाहिए। अतः उन प्रमाणों को न मानना अज्ञान का फल है। इसी तरह बौद्ध सभी पदार्थों को क्षणिक मानते हैं परन्तु पदार्थों को क्षणिक माननेपर उनका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि जो पदार्थ कोई क्रिया करता है, वही वस्तुतः सत् है (परन्तु जो कोई क्रिया नहीं करता वह सत् नहीं है जैसे खरशृङ्ग) यदि पदार्थ क्षणिक है, तो वह क्रमशः क्रियाओं को नहीं कर सकता, क्योंकि क्रमशः क्रिया करने पर वह क्षणिक नहीं हो सकता । यदि वह एक ही क्षण में सब कार्यो को करे तो सभी कार्य एक ही क्षण में हो जाने चाहिए परन्तु ऐसा नहीं देखा जाता
और इष्ट भी नहीं है । अतः क्षणभङ्गवाद युक्तिविरुद्ध है । तथा समस्त ज्ञानों का आधार एक गुणी आत्मा माने बिना "मैने पाँच ही विषय जाने" इत्यादि संकलनात्मक ज्ञान भी नहीं हो सकता है, यह हम पहले बता चुके हैं, इसलिए सब को क्षणिक मानना मिथ्या है । बौद्धों ने जो यह कहा है कि - "दान देने से महान् भोग की प्राप्ति होती है" सो तो आर्हत् लोग भी कथञ्चित् स्वीकार करते हैं, इसलिए अंशतः स्वीकृत होने के कारण यह हम से प्रतिकूल नहीं है ॥६॥
- पुनरपि शून्यमताविर्भावनायाह -
- फिर शास्त्रकार सर्वशून्यतावादी का मत बताने के लिए यह गाथा कहते हैं - णाइच्चो उएइ ण अत्थमेति, ण चंदिमा वड्ढति हायती वा । सलिला ण संदंति ण वंति वाया, वंझो णियतो कसिणे हु लोए
॥७॥ छाया - नादित्य उदेति नास्तमेति, न चन्द्रमा वर्धते हीयते वा।
सलिलानि न स्यब्दन्ते, न वान्ति वाताः वन्थ्यो नियतः कृत्स्नो लोकः ॥ अन्वयार्थ - (णाइच्चो उएइ) सर्वशून्यतावादी कहते हैं कि सूर्य उगता नहीं है (ण अत्थमेति) और न वह अस्त होता है । (चंदिमा ण वड्ढती हायती वा) तथा चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है । (सलिला न संदंति) तथा पानी बहता नहीं है (ण वंति वाता) और वायु चलता नहीं है (कसिणे लोए णियतो वंझो) किन्तु यह समस्त जगत् झूठा और अभावरूप है।
___ भावार्थ - सर्वशून्यतावादी कहते हैं कि सूर्य उगता नहीं और अस्त भी नहीं होता है तथा चन्द्रमा न बढ़ता है और न घटता है, एवं पानी बहता नहीं है और हवा भी चलती नहीं है किन्तु यह समस्त विश्व झुठा और अभावरूप है।
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